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विकृतिस्वरसत्त्वादेर्भयभावो भयानकः। सर्वाङ्गवेपथुस्वेदशोषवैवर्ण्यलक्षणः।। दैन्यसम्भ्रमसंमोहत्रासादिस्तत्सहोदरः।।'
अर्थात् विकृत शब्द अथवा सत्त्व (पराक्रम, प्राणी पिशाच आदि) आदि विभावो से उत्पन्न होने वाला भय नामक स्थायी भाव ही (परिपुष्ट होकर) भयानक रस होता हैं। सारे शरीर का कॉपना, पसीना छूटना, मूंह सूख जाना, रंग फीका पड़ जाना ( वैवळ) आदि इसके चिह्न (कार्य अनुभाव) होते हैं। दीनता, सम्भ्रम, सम्मोह, त्रास आदि इसके व्यभिचारी भाव है।
(९) शान्त रस - श्रव्य या पाठ्य काव्यों में शान्त नामक नवम रस का भी प्रयोग किया जाता है। चूंकि शान्त रस का अभिनय नहीं किया जा सकता। इसलिए नाट्य में शान्त रस का प्रयोग नहीं होता है। आचार्य भरतमुनि शान्त को अतिरिक्त रस मानते हैं। आचार्य धनञ्जय भी कहते हैं कि सूक्ष्म तथा अतीत और सभी वस्तुओं को शब्द द्वारा प्रतिपादित किया जा सकता है अतः शान्त रस भी काव्य का विषय होता है, इस तथ्य का निषेध नहीं किया जा सकता है। इसलिए यह कहा गया है
शमप्रकर्षोऽनिर्वाच्यो मुदितादेस्तदात्मता।'
अर्थात् यदि शम नामक स्थायी भाव का प्रकर्ष शान्त रस होता है तो वह अनिर्वचनीय है। किन्तु जो मुदिता आदि हैं उनके स्वरूप में ही होते हैं।
आचार्य मम्मट भी शान्त रस को स्वीकार करते हैंनिर्वेदस्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः।'
दशरूपकम् ४/८० पृ. सं. ३९५ दशरूपकम् ४/४५