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भाषा, अलंकार एवं अन्य चेष्टामय कार्यो से लोक को हँसाने के कारण यह हास्य कहलाता है। आचार्य विश्वनाथ ने हास्यरस के सन्दर्भ में कहा है -
विकृताकारवाग्वेषचेष्टादेः कुहकाद्भवेत् हास्यो हासस्थायिभावः श्वेतः प्रथमदेवतः।। २१४।। विकृताकारवाक्चेष्टं यमालोक्य हसेज्जनः। तमत्रालम्बनं प्राहुस्तच्चेष्टोद्दीपनं मतम् ।। २१५।।'
अर्थात् हास्य वह रस है जिसे ‘हास' स्थायीभाव का अभिव्यञ्जन कहा जाया करता हैं। इसका आविर्भाव आकार विकृति, वागविकृति, वेषविकृति, चेष्टा विकृति किं वा अन्यान्य प्रकार की विकृतियों के वर्णन अथवा अभिनय से हुआ करता है। इसका वर्ण श्वेत है और इसके अधिष्ठातृदेव प्रथमगण है। इसका आलम्बन वह व्यक्ति है जिसमें आकार, वाणी और चेष्टा की विकृतियां दिखायी दिया करती हैं और जिसे देख-देख लोग हँसा करते हैं। ऐसे हास्यास्पद व्यक्ति की जो चेष्टाये हैं वे ही यहाँ 'उद्दीपन' का काम किया करती है। इसके अनुभाव वर्ग में नेत्र निमीलन, मुख-विकास आदि की गणना है। इसके जो व्यभिचारी भाव है वे हैं निद्रा, आलस्य अवहित्था आदि। इसके ६ भेद है
(१) उत्तम प्रकृतिगत 'स्मित' हास्य (२) उत्तम प्रकृतिगत 'हसित' हास्य (३) मध्यम प्रकृतिगत 'विहसित' हास्य (४) मध्यम प्रकृतिगत 'अवहसित हास्य (५) अधम प्रकृतिगत ‘अतिहसित' हास्य। आचार्य धनञ्जय ने हास्य रस का स्वरूप बताया है
"विकृताकृतिवाग्वेषैरात्मनोऽथ परस्य वा।
भावप्रकाश, पृ. ४९ साहित्यदर्पण, ३/२१४-२१५, पृ. सं. २५१