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यत्रानुरक्तावन्योन्यं संभोगोऽयमुदाहृतः । । '
अर्थात् परस्पर प्रेम-पगे नायक और नायिका के दर्शन परस्पर स्पर्शन आदि-आदि की अनुभूति का प्रदाता जो रस है वह 'संभोगशृङ्गार' है।
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संभोगशृङ्गार के उद्दीपन विभावो में सभी ऋतुयें, चन्द्र चन्द्रिका, सूर्य, ज्योत्सना, चन्द्र और सूर्य के उदय और अस्त जलविहार, प्रभात, मधुपान, रात्रिक्रीडा, चन्दनादि के अनुलेपन भूषण धारण किं वा अन्यान्य स्वच्छ, सुन्दर तथा सुमधुर पदार्थ अन्तर्भूत हैं।
संभोग शृङ्गार के ये चार प्रकार भी प्रतिपादित किये गये है - (१) पूर्वरागानन्तर ( २ ) मानानन्तर संभोग (३) प्रवासानन्तर संभोग ( ४ ) करुण विप्रलम्भानन्तर संभोग ।
(२) हास्य रसः शारदातनय ने हास्य रस पर अपना विचार प्रकट करते हुए सर्वप्रथम इस रस की व्युत्पत्ति किस प्रकार हुई है इस पर चर्चा किया है। 'हास' धातु से हास पद की व्युत्पत्ति को स्पष्ट करते हुए हास पद के साथ ‘अप् तथा घञ्' प्रत्ययों की चर्चा की हैं अप् प्रत्ययान्त 'हस्' धातु से हास पद की रचना होती है। इस हस् को हास तक पहुँचने में पुनः घञ् प्रत्यय जैसे किसी प्रत्यय के सहयोग की अपेक्षा बनी रहती है घञ् प्रत्ययान्त हस् धातु से हास पद की व्युत्पत्ति का सीधा सम्बन्ध दिखायी देता हैं। यही कारण है कि शारदा तनय ने हास पद को घञन्त अथवा दोनों प्रत्ययों से व्युत्पन्न बताया है। आगे इनका कथन है- जिसके द्वारा हँसाया जाय वही हास्य है। 'हास्यतेऽसाविति यतस्तस्माद्धास्यस्य निर्वहः । विकृतांग वय, द्रव्य,
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साहित्यदर्पण ३/२१०