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हासः स्यात्परिपोषोऽस्य हास्यस्त्रिप्रकृतिः स्मृतः।'
अपने या दूसरे के विकार युक्त आकार, वचन तथा वेष आदि से जो हास होता है उसका परिपोष हास्य रस कहलाता है। इसे त्रिप्रकृति कहा गया है। इन्होने भी इसके छ: भेदो का उल्लेख किया है।
(३) वीर रस - वीर पद की व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए शारदातनय ने ज्ञार्थक तथा खण्डनार्थ 'रा' दाने तथा 'ला' दाने धातुओ का उल्लेख किया है। वीर रस की उत्पत्ति पर विचार करते हुए शारदातनय ने इसे ऋग्वेद से उत्पन्न बताया हैं। इसी प्रकार वासुकि एवं नारद के विचारों का उल्लेख करते हुए शारदातनय का कहना है कि रजोगुण विशिष्ट सत्त्ववृत्ति वाले अहंकार से जो विकार उत्पन्न होता है इसे वीर रस कहते हैं। व्यासोक्त मार्ग से त्रिपुरदाह के भावाभिनय प्रसंग से वीररस की उत्पत्ति हुई है। वीर रस तीन प्रकार का होता है (१) युद्धवीर (२) दयावीर (३) दानवीर।' वीर रस के सन्दर्भ में आचार्य धनञ्जय ने कहा है
वीरः प्रतापविनया ध्यवसायसत्त्वमोहाविषादनयविस्मयविक्रमाद्यैः। उत्साहभूः स च दयारणदानयोगात् त्रेधा किलात्र मतिगर्वधृतिप्रहर्षाः।।'
अर्थात् प्रताप, विनय अध्यवसाय, सत्त्व, मोह, अविषाद नय, विस्मय पराक्रम इत्यादि (विभावों) के द्वारा होने वाले उत्साह ( स्थायीभाव) से वीर
दशरूपकम् ४/७५ पृ. सं. ३९१
भावप्रकाश
दशरूपकम् ४/६२