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रस शब्द से भी कहा है और अपने ग्रन्थ का रसगंगाधर नाम रखने का भी पण्डितराज का यही आशय है। अतः शान्त रस का अर्थ है परम शिव ।
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“ममैवांशो जीवलोके” इस गीतोक्ति के अनुसार जीव परमात्माका अंश हैं। अब सिद्ध करते है कि शान्त सबका उद्गमस्थल हैं। भरत ने इसी भाव को दृष्टि मे रखकर लिखा है -
न यत्र दुःखं न सुखं न द्वेषो नापि मत्सरः । समः सर्वेषु भावेषु स शान्तः कथितो रसः । । भावाः विकारा रत्याद्याः शान्तस्तु प्रकृतिर्मतः । विकारः प्रकृतेर्जातः पुनस्तत्रैव लीयते । । स्वं स्वं निमित्तमासाद्य शान्ताद्भावः प्रवर्तते । ।
पुनर्निमित्तापाये च शान्त एवोपलीयते ।
एवं नवरसा दृष्टा नाट्यज्ञैर्लक्षणान्विताः । ।
अर्थात् जहाँ न दुःख है न सुख है, न द्वेष है और न मत्सर है अर्थात् दूसरो की अच्छाई में बुराई निकालने की या देखने की भावना वहीं है और जो सब भावो मे समान है वह प्रसिद्ध शान्त रस है । '
नवो रसों के स्थायी भाव को जानने से पहले स्थायी भाव किसे कहते हैं? इस पर विचार करना आवश्यक है ' स्थायी भाव की परिभाषा करते हुए आचार्य विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में लिखा है कि 'स्थायीभाव उस भाव को कहते हैं, जो न तो किसी अनुकूल भाव से तिरोहित हुआ करता है और न
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नाट्यशास्त्र भरतमुनि प्रथमभागात्मकम् पू. सं. ६८
सम्पा. साहित्याचार्य श्री मधुसदनशास्त्री एम. ए.