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अनुसार रसास्वादन की साधन सामग्री नहीं अपितु साक्षात् रस का प्राणभूत चमत्कार अथवा आत्मलय है। साहित्यदर्पणकार ने भी आचार्य अभिनव गुप्त के समान 'रस' को अखण्डस्वप्राकाशानन्दचिन्मय' कहा है अथवा यह 'रस' का अनुभव, सहृदय सामाजिको का साक्षात् आत्मसाक्षात्कार रूप है जिसके होते हुए मन की चञ्चलता किंवा मोहान्धता भाग जाया करती है।
स्वाभिमत- इस प्रकार स्थायी भाव जब विभाव अनुभाव व्यभिचारी भावो द्वारा अभिव्यंञ्जित होता है तो वह रस कहलाता है। यह रस अलौकिक होता है जिसे सहृदय ही अनुभूत करते है । यह अनुभूति साधारणीकरण द्वारा होती है। वस्तुतः जब अभिनेता रंगमंच पर अभिनय करता है तो सहृदय जन साधारणीकरण द्वारा उन भावो का अनुभव प्राप्त करते हैं। उस समय उनके हृदय मे रजस् और तमस् को अभिभूत करके सत्त्वगुण आविर्भूत हो जाता है। सत्त्वगुण प्रकाशमय है, आनन्दमय है अतः इसके द्वारा ज्ञेयान्तर का सम्पर्क नहीं होता है। सहृदय सामाजिकों को रसानुभूति करते समय ऐसा प्रतीत होता है। मानों वह रस साक्षात् रूप से हृदय में प्रविष्ट हो रहा है। इस प्रकार हम विलक्षण आस्वाद को रस कह सकते है।
रसों की संख्या तथा संज्ञा - आचार्य भरतमुनि के अनुसार रसों की संख्या निम्नलिखित हैं
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शृङ्गारहास्यकरुणारौद्रवीरभयानकाः
बीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः । । '
नाट्य में स्वीकृत रस आठ हैं (१) शृङ्गार (२) हास्य (३) करुण (४) रौद्र (५) वीर (६) भयानक (७) वीभत्स तथा (८) अद्भुत नाट्यदर्पण में निम्नलिखित रसों की विवेचना की गई है.
नाट्यशास्त्रम् ६/ १६