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रसास्वादन में सहृदय सामाजिकों की मनोदशा विचित्र हुआ करती है। इसमे विचित्रता इसलिए रहा करती है क्यो कि अन्य किसी भी अनुभव मे ऐसी बात नही हुआ करती। यह मनोदशा मन के सत्त्वोद्रेक की दशा है। अथवा यों भी कह सकते हैं कि सामाजिक जन का वह मन ही 'सत्त्व' है जिसके रजोगुण और तमोगुण काव्यार्थपरिशीलन के द्वारा, अपने अपने प्रभावो के प्रकाशन में, असमर्थ हो जाया करते है। रजोमय मन चञ्चल हुआ करता है और तमोमय मन पर मोह संकट की छटा छायी रहती है। मन की चञ्चलता और मोहान्धता के निवारण के लिए योगीजन समाधि का सहारा लिया करते है। किन्तु काव्यरसिक किं वा नाट्यप्रेमी लोगों के मन का मोहसंकट काव्य अथवा नाट्य के भोग से ही भगाया जाया करता हैं। सर्वप्रथम नाट्यशास्त्र व्याख्याकार आचार्य भट्टनायक ने ही 'रसास्वाद में मन की दशा' का एक मनोवैज्ञानिक निरूपण किया था। भट्टनायक के अनुसार काव्य- नाट्य की भावकताशक्ति तो सामाजिकों में 'सहृदयता' का संचार किया करती है और जब सहृदयता का सञ्चार होने लमता है तब सामाजिकों में वह भोग सञ्चरित होने लगता हैं जो एक विचित्र अनुभव, एक अलौकिक मानस अध्यवसाय है। यह नाट्यानन्द, यह रसभोग ऐसा है जो 'परब्रह्मस्वादसविध' हुआ करता है। इसके स्वरूप का यदि विश्लेषण किया जा सके तो यही कहा जा सकता है कि यह 'सत्वोद्रेक प्रकाशाननन्दमयनिजसंविद्विश्रान्तिसलक्षण' है, ऐसा है जिसे साक्षात् एक अहंपरामर्श कह सकते हैं। यह अहंपरामर्श ऐसा है जिसमें मन का सत्त्वगुण, रजस् और तमस से अनुविद्व होते हुए भी, रजस् और तमस् को दबाकर, अपने पूर्णस्वरूप में प्रकाशित रहता है मन का यह सत्त्वोदेक एकमात्र आनन्दात्मक आत्मसंवेदनस्वरूप है।
भट्टनायकसम्मत यह 'भोग', यह 'सत्त्वोटेकप्रकाशानन्दमयनिजसंविद्विश्रान्ति' रूप अनुभव अभिव्यक्तिवादी आचार्य अभिनवगुप्त के