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कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च । रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः ।।
विभावा अनुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिणः । व्यक्तस्स तैर्विभावाद्यैस्स्थायीभावो रसः स्मृतः ।।
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इस प्रकार विभावादि द्वारा अभिव्यञ्जित होने पर स्थायीभाव ही रस के रूप में परिणत हो जाता है और तब वह रस अलौकिक आनन्द का जनक बन जाता है। उदाहरणार्थ जैसे नट अपनी भूमिका में रंगमंच पर वाचिक आदि अभिनयों द्वारा चित्तवृत्तियों का प्रदर्शन करता है, सामाजिक या दर्शक साधारणीकरण द्वारा उन भावों का अनुभव करता है। रसास्वादन या काव्यार्थानुभूति में भावों को ठीक यही स्थिति है। उसके स्पष्टीकरण में नाटयशास्त्र का वह श्लोक अवलोकनीय है जिसमें कहा गया है कि ' जो अर्थ विभावो द्वारा अभिव्यक्त और अनुभावों द्वारा वाचिक आंगिक एवं सात्त्विक अभिनयो द्वारा प्रतीति के योग्य होता है उसे भाव कहा जाता है -
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"विभावेनाहृतो योऽर्थो ह्यनुभावस्तु गम्यते ।
वागङ्गसत्वाभिनयैः रस भाव इति संज्ञितः । । " ( नाट्यशास्त्र ७/१ )
कवि अपने काव्य कौशल से लोक चरितों की उद्भावना करता है और उन अन्तर्भावों को नट या अभिनेता रंगमंच पर प्रस्तुत करता हैं। अभिनेता अपने विभिन्न अभिनयों द्वारा कवि के अन्तर्व्यापारों को रंगमंच पर प्रस्तुत कर दर्शको या सामाजिकों के मन में उन्हें परिव्याप्त करता है, आस्वादन योग्य बनाता है। काव्यशास्त्र मे इसी को साधारणीकरण कहा जाता है। '
भारतीय नाट्य परम्परा और अभिनय दर्पण पृष्ठ सं. १७७ वाचस्पति गैरोला संवर्तिका प्रकाशन करलेबाग कालोनी, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित प्रथम संस्करण १९६७