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मे नट आदि द्वारा अनुकरण रूप में प्रस्तुत किया जाने वाला स्थायीभाव ही सामाजिको के मन में रसता प्राप्त करता है।
स्थायी भाव प्राचीन संस्कारो द्वारा रसमय होते है और रसमयी अनुभूतियाँ ही रस की संज्ञा प्राप्त करती है।
तस्माद् -
-यत्ततो रसाः । । '
रस किसे कहते हैं ? विभिन्न आचार्यों के अनुसार रस की परिभाषा नाटकलक्षणरत्नकोश के ग्रन्थ के अनुसार रस का लक्षण निम्नलिखित है
विभावस्यानुभावस्य व्यभिचारिण एव च ।
संयोगादुन्मिषेय भाव स्थाप्येव तु रसो भवेत् ।। '
अर्थात् जब विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भावों के पारस्परिक संयोग द्वारा स्थायी भाव विकास प्राप्त करे तो वही रस हो जाता है।
दशरूपकम् मे आचार्य धनञ्जय रस का लक्षण देते हुए कहते हैं - विभावैरनुभावैश्च सात्त्विकैर्व्यभिचारिभिः
आनीयमानः स्वाद्यत्वं स्थायी भावो रसः स्मृतः । । (४/१/ दश.)
अर्थात् विभाव, अनुभाव, सात्त्विकभाव एवं व्यभिचारियों के द्वारा जब रत्यादि स्थायी भाव आस्वाद्य चर्वणा के योग्य बना दिया जाता है, तो वही रस कहलाता है।
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भाव प्रकाश- तृ. अ. पृ. सं. ५९
(भाव प्रकाशन - एक समालोचनात्मक अध्ययन पृ. सं. ९२ )
नाटकलक्षण रत्नकोश ॥१९१॥ पृ० १८२
(सागरनन्दी व्याख्याकार पं. श्री बाबूलाल शुक्ल, शास्त्री प्रकाशक- चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी, विद्यासागर प्रेस, वाराणसी)