________________
110
जैनमेघदूतम् की रस योजना
(क) रस तत्त्व
आचार्य मेरुतुङ्ग कृत जैनमेघदूतम् मे रस विमर्श करने के पूर्व हम रस का सामान्य परिचय, संख्या विभिन्न काव्यो के अनुसार उसकी संख्या, रसो के स्थायी भाव, तत्त्वो पर विचार करना आवश्यक समझते हैं -
___ रस की आदिप्रणेता और व्याख्याता आचार्य भरत ही माने जाते है इन्होने रस का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण नाट्य के सन्दर्भ में किया है। निःसंदेह रस का प्रेरणा-स्रोत वेद एवं अन्य प्राचीन साहित्य रहा होगा। रस आनन्द स्वरूप है इस प्रकार का विवरण उपनिषदों में मिलता है। रसों को रस के आनन्दात्मकता होने के कारण पर ब्रह्म परमेश्वर या आत्मा का भी रस रूप में ही ऋषियो ने उल्लेख किया है।'
व्युत्पत्ति के अधार पर रस पद की सिद्धि दो रूपों में की जाती है - (क) रस्यते आस्वाद्यते इति रसः। (ख) रसते इति रसः।
उपर्युक्त प्रथम अंश आस्वाद का अर्थ प्रकट करता है किन्तु द्वितीय अंश रस में द्रवत्व की स्थिति मात्र का बोध कराता हैं। साहित्यशास्त्र में रस पद का प्रयोग काव्यानन्द का बोध कराने के लिए होता है।
रस को रस क्यों कहा जाता है? इसके कारण को भी शारदातनय ने रस पद की व्युत्पत्ति के माध्यम से व्यक्त कर दिया है। विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी तथा सात्त्विकों द्वारा वर्धित तत्त्व नायकादि का आश्रय पाकर नाट्य
भारत और भारतीय नाट्यकला पृ.सं. २२२