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श्रीकृष्ण विलासी थी थे। वे श्रे नेमि और अपनी पत्नियों के साथ वसन्त ऋतु का पूरा आनन्द लेते है। उनके साथ बावली में कई बार स्थान करते है और सुन्दर सुन्दर सरोवरो को देखते है तथा प्रधान सरित वापियों में श्री नेमि एवं अपनी स्त्रियो केबीच सुन्दर शरीर वाले श्रीकृष्ण हाथों से जल समूह को उलीचते हुएमदभरी दृष्टि से कामानुरक्त स्त्रियो के साथ मतवाले हाथी के समान जलक्रीडा करते है।
श्रीकृष्ण विवाह संस्कार को आवश्यक मानते है । श्री नेमि द्वारा विवाह अस्वीकार किये जाने पर इन्हे स्वयं समझाने का प्रयास करते हैं तथा अपनी पत्नियो द्वारा भी विवाह के प्रस्ताव को स्वीकार कराने में पूर्णतः सक्षम होते
है।
श्री कृष्ण अत्यधिक विनम्र स्वभाव के हैं। वे स्वयं श्री नेमि के विवाह का प्रस्ताव लेकर राजीमती के पिता के पास जाते हैं और नीतिवाक्यो का कथन करते हुए राजीमती को श्री नेमि के लिए मांग लेते हैं
'दुग्धं स्निग्धं समयतु सितां रोहिणीपार्वणेन्दुं हैमी मुद्रा मणिमुरुघृणिं कल्पवल्ली सुमेरुम् । दुग्जाम्भोधिं त्रिदशतटिनीत्यादिभिः सामवाक्यैः, श्रीनेम्यर्थं झगिति च स मद्वीजिनं मां ययाचे । । '
जैसे शकरा स्निग्ध दुग्ध से मिलती है, रोहिणी नक्षत्र पावर्णचन्द्र से मिलती है, स्वर्णमुद्रिका अधिक कान्तिवाली मणि से मिलती है, कल्पलता सुमेरू से मिलती है उसी प्रकार राजीमती श्री नेमि से मिले इस प्रकार नीति वाक्यो को कहते हुए श्री कृष्ण ने शीघ्र ही मेरे पिता से मुझे मांगा।
जैनमेघदूतम् ३/२३