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तरह उन भगवान श्री नेमि के ध्यान मे ही अपना सारा जीवन व्यतीत कर
लूँगी
"क्वान्ये भूपाः क्व भुवनगुरुस्तस्य तद्योगिनीव
ध्यानान्नेष्ये समयमिति ताः प्रत्यथ प्रत्यजानि । " ३/५४
श्री नेमि द्वारा पाणिग्रहण अस्वीकार करने पर और छोड़कर चले जाने पर राजीमती उनके आनें की आशा को हृदय में रखकर प्रतीक्षा करती है।
इस प्रकार उपर्युक्त सभी भावो से उसके भावुक दृढानुरागिणी का परिचय मिलता है। यद्यपि राजीमती श्रेष्ठ रूप रंगों वाली है और उसकी विलक्षण बुद्धिमती भी है फिर भी वह श्री नेमि को जीत नहीं पाती है। अन्ततः वह अपने जीवन की सार्थकता श्री नेमि के समीप जाकर दीक्षा ग्रहण करने में, तथा उन्ही के ध्यान मे लीन होकर स्वामी की तरह राग द्वेष आदि से मुक्त होकर परमानन्द के सर्वस्व मोक्ष की प्राप्ति में मानती है
इस प्रकार जैनमेघदूतम् की नायिका कालिदास के मेघदूतम् की नायिका से पृथक् प्रतीत होती हैं। राजीमती भी विदुषी, पतिव्रता बुद्धिमती है। परन्तु वे विधिध कलाओं में प्रवीण नही है जैसा कि यक्षपत्नी वियोग के व्याकुल क्षणों मे अपने सन्तप्त मन को सान्त्वना देने के लिए कभी कभी ऐसे भाव पूर्ण गीतों की रचना करती थी जिसमें पति का नाम उल्लेख होता था और वीणा बजाकर उन पदो को गाने का प्रयत्न करती थी। कभी कभी अपनी प्रियतमा के वियोग से कृश हुए पति का चित्र खीचकर मनोविनोद करती थी। जैनमेघदूतम् की नायिका अपनी स्मृति पटल पर हर क्षण स्वामी का चित्र अंकित रखती है। वह असाधारण स्त्री है। उसका संयम, तप और त्याग, सौन्दर्य चिरन्तन और अधूमिल है।
श्रीकृष्ण - काव्य में श्रीकृष्ण का वर्णन बहुत विस्तृत रूप में नहीं किया गया है। कुछ श्लोकों द्वारा यह ज्ञात होता है कि श्रीकृष्ण का जन्म