________________
राजीमती श्रीनेमि से यह जानना चाहती है कि जब आप पशुओं के दुःखो को नाश करके उन्हे आनन्दित करते है तो अपने भक्त मुझको वचनो से ही क्यों नहीं आनन्दित करते है। राजीमती की तार्किक शक्ति जैनमेघदूतम् के चतुर्थ अंक मे दर्शनीय है।
राजीमती विदुषी महिला है। उसके भेजे गये सन्देशों मे हमे आध्यात्मिकता, दार्शनिकता, मनोवैज्ञानिकता आदि की झलक मिलती है। राजीमती का साहित्यिक ज्ञान भी उच्चकोटि का है। उसने विविध अलंकारों सूक्तियो का भी सुन्दर प्रयोग किया है, उसकी भाषा शुद्ध एवं परिमार्जित है।
उदाहरणार्थ राजीमती को न्याय दर्शन का भी ज्ञान है। इसका पता उसके विचारो से लगता है। वे कहती है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों की तरह स्मृति को प्रमाण न मानने वाले अक्षपाद मेरे विचार से सही नहीं है अर्थात् उनका सिद्धान्त अनुभव विरूद्ध है। जब आप मेरे द्वार से लौट रहे थे तो मैंने प्रत्यक्ष आपको देखा था, जब बाजे गाजे के साथ आप वन को जा रहे थे जब अनुभव किया कि आप वन को प्रस्थान कर रहे हैं और सखियों ने कहा कि - श्री नेमि ने दीक्षा ले ली है तो शब्द प्रमाण के द्वारा आपके सन्यस्त होने को जाना। तीनों प्रमाणों से जानकारी होने पर दुःख हुआ ही पर जब आप स्मृति पथ पर आते हैं अर्थात् आपका जब मैं स्मरण करती हैं तब तो और भी कष्ट होता है। इसलिए मेरा अनुभव है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों की तरह स्मृति को भी प्रमाण कोटि में नैयायिको को रखना चाहिए।'
'नो प्रत्यक्षानुमितिसमयैर्लक्ष्यमाणः . . . . न दक्षः।'
राजीमती दार्शनिकों के आधार और आधेय में मात्र औपचारिक भेद को स्वीकार नहीं करती है वे कहती है कि हमारा हृदय आधार हैं। आप आधेय है दोनों में स्पष्ट रूप से अन्तर है क्यों कि हमारा हृदय क्लेश मग्न है और
जैनमेघदूतम् ४/३१