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राजीमती मे तर्क शक्ति करने की अद्भुत क्षमता है। उपालम्भ से परिपूर्ण उसका एक एक तर्क सहृदय रसिक के अन्तस्तल को भेदते हुए प्रतीत होते है स्वामी श्री नेमि के वैराग्य से राजीमती अत्यन्त सन्त्रस्त हो जाती है और तब मर्माहत उसके अर्न्तहृदय से उद्भूत मनोभाव उपालम्भ के रूप में परिणत होकर फूट पड़ते है। राजीमती अपने स्वामी से प्रश्न करती है कि 'हे नाथ। विवाह काल मे नवीन तथा स्थिर प्रेमवाली जिस मुझको आपने मधुर तथा घृताक्त किन्तु शीतल क्षैरेयी की तरह हाथ से भी नही हुआ था, कामाग्नि से अत्यन्त उष्ण हो एवं वाष्पपूरित एवं अनन्य मुक्ता उसी मुझको नवीन कान्ति वाले आप आज क्यो नही स्वीकार करते हैं।'
यां क्षैरेयीमिव नवरसा नाथ वीवाहकाले .... ...... न स्वीक्रियते।
राजीमती अपने पति से यह भी तर्क करती है कि 'हे विभो यदि आप बाद मे मुनि बनकर त्यागना चाहते थे तो पहले स्वजनों की बुद्धि से मुझको स्वीकार ही क्यो किया था। सभी सज्जन पुरुष निश्चल बुद्धि होने के कारण 'हर शशि कला न्याय) से उन्हीं उन्हीं वस्तुओ को स्वीकार करते हैं जिनका निर्वाह वे कर सकते हैं। वे आगे तर्क करती है
'आसी: पश्चादपि यदि विभो ! मां मुमुक्षुर्मुमुक्षुः भूत्वा तत्कि प्रथममुररीचर्करीषि स्वबुद्ध्या। सन्तः सर्वेऽप्यतरलतया तत्तदेवाद्रियन्ते यन्निवोढुं हरशशिकलान्यायतः शक्नुवन्ति।।'
जैनमेघदूतम् ४/१५ जैनमेघदूतम् ४/१६८ जैनमेघदूतम् ४/१६