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________________ ( ८८ ) निरंजना ठीक । परंतु प्यास एक आवश्यक होती है और दूसरी अनियमित । पहनी जल जाती है ; दूसरी हाला की ओर इंगित करती है। तुम जल च हती हो या हाला ? कांति भूग्व प्यास औः पन्न-जल--बनचरों-सा जीवन का क्रमकिमी को प्रिय नहीं हो सकता । मानव की चेतना उससे यही चाहती है कि वह इनसे ऊपर उठे। सुग्व की कामना त्याज्य समझती हो तुम? (सहसा मालती का प्रवेश ) मालती सुग्व कामना तो प्राणी जन्म से पालता है। कांति यही तो कहती हूँ; संसार में लिप्त और विरक्त - सभी इमी को खोज में व्यस्त रहते हैं ; नित्य नये साधन जुटाते हैं। इम लोक में ही नहीं, परलोक में भी सुख चाहने की चाह में, ये अपने को घुला डालते हैं । क्या सुख को त्याज्य समझते हैं ये ? निरंजना सुव त्यागने को मैं कब कहती हूँ ! परंतु सुख के रूप और आदर्श में अंतर तो रहता है न ? अमृतपान और मदपान का अ'नंद तो समान नहीं कहा जा सकता ?
SR No.010395
Book TitleKarmpath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremnarayan Tandan
PublisherVidyamandir Ranikatra Lakhnou
Publication Year1950
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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