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( ८५ ) बड़ी दूर दूर तक नाम है। ( कांति फिर भी मौन रहती है।) बड़ो भाग्यशालिनी हो तुम । ( कांति चिट्टियाँ हाथ में लिए हुए उसकी ओर इस तरह देखती है जैसे उसके कथन में निहित भावना जानना चाहती हो ) इसमें लेखक जी का लेख भी है पारिवारक प्रशांति' ; तुमने तो यह पहले ही पढ़ा होगा ?
कांति मैंने ? ( मुख कुछ मलिन हो जाता है ) मैंने नो नहीं पढ़ा ।
निरंजना ऐं ! ऐसे लेख तो नुमसे सलाह करके लिखे जाते होंगे ?
कांति मुझसे ? मै भला क्या सला दूंगी किसी को ?
निरंजना ( चित्र को खोलकर उसके सामने रखती हुई ) मेरी ओर देखते समय यह चित्र गंभीर हो जाता है, पर तुम्हारी ओर कितनी मुस्कराहट से देखता है यह ! (कांति उड़ती हुई दृष्टि चित्र पर डालती है ) एक बात पूछू तुमसे, बताोगी ?
कांनि
छिपाया है मैंने तुमसे कभी कुछ :
निरंजना लेखक जी को पति-रूप में पाकर सुग्बी हो तम? ।
कांति
( मुस्कराकर ) कहीं तुम्हें ईर्ष्या तो नहीं होती है मेरे भाग्य से ?