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ना,
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६७०५ पुस्त पर इसके मुकुट भी
ललाट
सकाजय ) विजय चिह्नमा शोषित है सुवर्ण का ।
हिन्दुस्तान,
वृद्ध ऋषिवर भी ;
मोह के कल्पित तोप मे अति विभोर से |
बढ़कर आगे पग एक, रक्ग्वा दृढ़ता मेकर दायाँ शीश पर पुत्र के उन्होंने । तनकर कुछ फिर खड़े हुए वे ; बोलेगर्व और प्रसन्नता के गंभीर स्वर में - ]
सुरगुरु आशा थी प्रिय पुत्र तुझसे मुझे ऐसी ही । मत समझ परंतु परीक्षा समाप्त हो गई तेरी । आरंभ होगा उसका अबसे ।
देता आशीर्वाद प्रसन्न होके तुझे मैं-वचन हों सत्य तेरे समस्त ; दृढ़ रहे उन पर तू । विघ्न बाधाएँ सब नष्ट हों । सफलता स्वयं ही चेरी बने तेरी सदा ।
| दमक उठा मुखं-मडल वर वीर का । जलद-पटल बेधकर निज शक्ति से, शोभित होता है रवि-मंडल गगन में जैसे कांति लेकर पूर्व, तेज भी दूना,