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लौकिक अमरत्व पद तभी उन्होंनेभटकता जिसके लिए हा ! नर-लोक है जीवन भर चाहता पुत्र मांग-सा ही एकाकी ; निज समस्त पुण्य पुरातन तथा चिरसंत्रित संपत्ति पैतृक के बदले ।
मूद लिए मुग्ध नेत्र दोनों अपने ।
कर बद्ध कर दिए ईश-भक्ति-भावना
ने उनके | किया प्रणाम मन-ही-मन में; कृतज्ञता से प्रति नतमस्तक हो गए ।
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कुछ क्षण बाद ही खुले फिर नेत्र दोनों उनके भक्ति से, वात्सल्य से झलकंने-स लगा, उत्सुक मानो, किंचित् नीर उनमें । स्नेह को सरल दृष्टि श्रहा ! नाच रही थी क्षीण रस-पर्त र मुदित सौ उनकी · खेलती थी दीप ज्योति भर अति मोद में, जल- चादर पर, पूर्व समय में जैसे
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केलि काड़ा करने लगी सरल बालिकाकल्पना तब रुचिर प्रांगन में मस्तिष्क के । नेत्र-नीर - चादर पार देखा यों उसनेशोभित है विजय वैजयती श्रहा ! गले विवि की शुभ्र सी प्रिय पुत्र के ।