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त्योंही निज जनक पूज्य परम के श्रहा ! शुभाशीर्वाद की मंगलदायिनी ममतामय क्षमता अपार का पाकर सहारा दिय-भूमि उर्वरा में गुरु- नेत्र ज्योति की, कर्तव्य पालन पुनीत प्रिय सहज-सी, भावना-ललित का मृदु बीज हो गया अंकुरित उत्साह - जीवन के शुभ योग से ।
विल उठा मुग्व- किशोर खिलते सुमना की प्रिय सरलता खिलती है स्पर्श में ज्या, उदित होते तमारि को प्रथम रश्मि के |
गर्व - गौरव महान भावना को जनना ही नेत्रों में नाच उठी मूर्तिमान बालिका
मो जैसे | पूछा मोमित शब्दों में युवक ने --]
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कच
आज्ञा है क्या पूज्य पिता जी, अब मेरे लिये ?
[ बोले गुरुवर तब गम्भीर स्वर में -
सुग्गुरु
जाओ तुम प्रातही पास श्री शुक्राचार्य के, दानवों के गुरुवर हैं जो, प्रति विज्ञ हैं सञ्जीवनी विद्या में, सीखना उनसे यहो ।