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निज प्रिय देश के प्रति ; चिह्न थे भक्ति के, विनय के अपने जनकवर के लिए ।
दूसरे ही क्षण सहज गर्व - गौरव से उठ गई ग्रीवा ; तनकर खड़ा हो गया युवक यों होकर प्रति मुदित मन में, मनोनीत वस्तु मानों मिल गई हो उसे । कर बद्ध करता बोला विनीत स्वर में - ]
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पिताजी ! पूज्य मेरे ! अहोभाग्य समझँगा पालन यदि कर सका आज्ञा का आपकी ; चिन्ता नहीं, प्राण पर खेलना पड़े मुझे-हँसते-हँसते ही बलिदान यह होगा संकेत मात्र पर आपके पुत्र आपका |
[ श्रावेश में श्रा गया युवक वर वीर य, सघन कानन कुज में शयन करते शिशु - सिंह को छेड़ दिया हो किसी से अट्टहास करके - अपमान - सा उसका जैसे | वीरभाव से, किंचित् दर्प से, गर्जन-सा
करने लगा ।
नेत्रों में उस समय पिता के
गर्व था, उत्सुकता थी, कुछ प्रशांत-सी