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________________ ( १२५ ) माता, मुझे शाप दो-उस सोने को देखने की चाह रखने वाली ये आँखें फूट जायँ, उसे लेने को बढ़ने वाले ये हाथ गल जायें: हाय, क्या कर डाला मैंने ( दोनों हाथों से मुँह छिपा लेता है ) .......] ईसा उठो वत्स ! तुम ने जो किया है उसकी सूचना मुझे मिल चुकी है । तुम्हारा कोई दोष नहीं है - मनुष्य -""" चौथा शिष्य भगवन्! आपकी क्षमा । ईसा पूर्ववत् ही प्रिय रहोगे और तुम्हारे इन पहले सा ही रहेगा । तुम मुझे सदैव भाइयों का प्रेम भी तुम से चौथा शिष्य दयालु देव ! पाकी क्षमा महान् है । परन्तु मेरे पापी हृदय को शांति तभी मिलेगी जब आप मुझे कुछ दंड देंगे । ईसा अच्छा तो दंड ही स्वीकार करो। मेरी माता की सारी देखभाल तुम पर रही । ( सैनिकों से ) चलो भाइयों ! [ सेनानायक का सैनिक और ईसा के साथ प्रस्थान ] चौथा शिष्य ( माता मरियम के चरण में लोट कर ) हाँ, यह दंड मेरे उपयुक्त है । पुत्र के वियोग में जब माता गाय की तरह .
SR No.010395
Book TitleKarmpath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremnarayan Tandan
PublisherVidyamandir Ranikatra Lakhnou
Publication Year1950
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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