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________________ ( ११३ ) भारतीय वह वाकपटुता नहीं है । अपने देशवासियों की सेवा जिस प्रकार कष्ट सहकर तुम कर रहे हो, सर्वत्र उसकी प्रशंसा मैने सुनी है। तुम्हारे शत्रुषों की संख्या कम नहीं दिखायी देती और संभव है कि तुम्हें उनके हाथों कष्ट भी उठाना पड़े । ईसा ( सोत्साह) मुझे कष्टों से भय नहीं है । हमारे देश की प्रजा किसी प्रकार सुखी हो जाय, मेरे जीवन का परम उद्देश्य यही है । इसके लिए मुझे यदि काँटों का ताज पहिनना पड़े तो मै हँसते-हँसते उसे स्वीकार कर लूँगा । भाई, आशीर्वाद दो कि मैं अपने निश्चय पर दृढ़ रह सकूँ । तीसरा शिष्य ( प्रवेश करके भारतीय से) आप के विश्राम का प्रबंध हो गया है । ईसा जाओ भाई विश्राम करो। हाँ, सुनो, एक प्रार्थना है । जब भारत लौटना तो गुरू जी के चरण छूकर इतना निवेदन कर देना कि मैं शक्ति भर आप के आदेशों को कार्यरूप दे रहा हूँ । भारतीय कल मैं स्वदेश को प्रस्थान करूँगा; अभी से संदेश दिये देते हो ; क्या भेंट नहीं करोगे कल !
SR No.010395
Book TitleKarmpath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremnarayan Tandan
PublisherVidyamandir Ranikatra Lakhnou
Publication Year1950
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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