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प्रस्तावना
आचार्य मम्मटने अपने काव्य प्रकाशमें कहा है कि
काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवतरक्षतये ।
सद्यः परिनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥ अर्थात् काव्य यश, धन, व्यवहार लाभ, अमङ्गल हानि, सद्यः सन्तोष और कान्तासम्मित भावसे उपदेश दानका कारण है। आचार्य कुन्तकने शास्त्र और काव्यमें अन्तर बतलाते हुए लिखा है कि
___ कटु कौषधवच्छास्त्रमविद्याव्याधिनाशनम् ।
___ आहाद्यमृतवत्काव्यमविवेकगदापहम् ॥ -वक्रोक्ति जीवित । अर्थात् शास्त्र तो कडुवी औषधिके समान अविद्यारूपी रोगको नष्ट करनेवाले हैं और काव्य आनन्ददायी अमृतके समान अविवेक रूपी रोगको हरनेवाला है ।
इस तरह विचार करनेपर विदित होता है कि काव्यके द्वारा अनायास ही लोक कल्याण सम्पन्न हो जाता है । जब पूर्व आचार्योंने देखा कि जनताकी रुचि शास्त्रोंके नीरस अध्ययन की ओर पूर्ववत् आकृष्ट नहीं होती है तब उन्होंने काव्यसुधाकी पुट दे दे कर शास्त्रीय चर्चाको सरल और सुग्राह्य बना दिया। यही कारण है कि काव्यकालमें जिनकी रचना हुई है ऐसे न्याय, आयुर्वेद, ज्यौतिष आदिके ग्रन्थोंमें भी काव्यसुधाका प्रवाह उनके रचयिताओंने प्रवाहित किया है।
कवृ वर्णने' धातुसे कवि शब्द बनता है जिसको व्युत्पत्ति होती है 'कवने-वर्णयति इति कविः' अर्थात् जो वर्णन करे उसे कवि कहते हैं । विद्याधरने अपनी एकावलीमें 'वयाति कविः' इस प्रकार भी कवि शब्द की निरुक्ति की है 'कवेः कर्म भावो वा काव्यम्' कविका जो भाव अथवा कर्म है उसे काव्य कहते हैं । भामहने भी लिखा है कि
प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता।
तदनुप्राणनाजीवेद् वर्णनानिपुणः कविः ।। तस्य कर्म स्मृतं काव्यम् ।
अर्थात् नव नवोन्मेषसे सुशोभित कविको जो बुद्धि है, उसे प्रतिभा कहते हैं । इस प्रतिभाके वलपर जो जीवित है तथा नाना प्रकारके वर्णन करनेमें निपुण है उसे कवि कहते हैं। कविका जो कर्म है उसे काव्य कहते हैं। कविका लक्षण लिखते हुए आचार्य अजितसेनने भी अलंकारचिन्तामणिमें ऐसा ही लिखा है
प्रतिभोजीवनो नानावर्णनानिपुगः कृतीं।
नानाभ्यासकुशाग्रीयमतिर्युत्पत्तिमान् कविः ॥ यह काव्य शब्दका निरुक्त्यर्थ है जिसमें किसीको विवाद नहीं है पर इसके वाच्यार्थका विभिन्न आचार्यों ने विभिन्न शैलियोंसे वर्णन किया है। यहाँ उनमेंसे कुछका निदर्शन करा देना अनावश्यक नहीं होगाकाव्योंके विभिन्न स्वरूप
मृदुललितपदाढय गुढशब्दार्थहीनं जनपदसुखबोध्यं युक्तिमन्नृत्ययोज्यम् । बहुकृतरसमार्ग सन्धिसन्धानयुक्तं स भवति शुभकाव्यं नाटकप्रेक्षकाणाम् ॥
-नाट्यशास्त्र १६।११८