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जीवन्धरचम्पूकाव्य
कितने ही कोश लाँधकर जब जीवन्धर स्वामी बहुत दूर निकल गये तब उनके हृदयसे शङ्का रूपी युवती दूर हट गई और रात्रिने भी उसीकी सहायता प्राप्त की अर्थात् रात्रि भी समाप्त हो गई ॥६॥ पतिके चले जानेसे पद्मा भी, जो संतापरूपी वडवानलकी ज्वालाओंसे व्याप्त था, कामरूपी मगरमच्छोंसे भरा था और मनोहर कण्ठध्वनिके द्वारा जिसमें गर्जन सम्बन्धी कोलाहल हो रहा था ऐसे पतिके विरह रूपी अपार सागरके मध्यभागमें निमग्न हो गई थी ॥७॥ लोकपालके द्वारा भेजे हुए कितने बुद्धिमान् लोगोंने यद्यपि चारों दिशाओंमें खोज की थी तो भी वे कुमारके यहाँ आनेका समाचार नहीं जान सके थे ।।८।।
जहाँ-तहाँ तीर्थ-स्थानोंकी पूजा करते हुए जीवन्धर स्वामी बड़ी शीघ्रतासे आगे बढ़ते जाते थे। चलते-चलते उन्होंने एक ऐसा तपोवन देखा जो कि कहीं तो वस्त्रकी इच्छा रखनेवाले तपस्वियों द्वारा खींची गई वृक्षोंकी छालकी मर्मर ध्वनिसे शब्दायमान था, कहीं साधुओंके हाथमें सुशोभित कमण्डलुके मुखमें भरनेका जल भरनेसे समुत्पन्न कल-कल शब्दसे शोभित था, कहीं बालकोंके द्वारा तोड़कर फेंकी हुई मूजको मेखलाओंसे व्याप्त था, कहीं कुमारियोंके द्वारा भरी जाने वाली वृक्षोंकी क्यारियोंसे युक्त था, कहीं उसके सरोवरोंका जल गेरुआ वस्त्र धोनेसे लाल लाल हो रहा था, कहीं सींचे गये वल्कलोंकी शिखाओंसे निकलने वाले जलकी रेखाओंसे सुशोभित था, कहीं व्याघ्रचर्मसे निर्मित आसनोंपर बैठे हुए जाप करने वाले लोगोंसे व्याप्त था, कहीं उन तपस्वियोंसे सुशोभित था जो कि स्नानके समय लगे हुए शेवालकी छटाके समान दिखने वाले जटासमूहके धारक होनेसे चारों ओर देदीप्यमान अग्नियोंकी फैली हुई धुएँकी रेखाओंसे आलिङ्गितके समान जान पड़ते थे, जिन्होंने अपना भुजदण्ड ऊपरकी ओर फैला रक्खा था और जो पञ्चाग्निके मध्य तपस्या करनेमें अत्यन्त निपुण थे । कहीं उन तपस्वी लोगोंकी स्त्रियोंके द्वारा वहाँ नीवार पकाया जा रहा था और कहीं उन्हींके पुत्रों द्वारा काटे जाने वाले गीले इन्धनसे व्याप्त था।
मिथ्या तप देखकर जिनका चित्त दयारूपी नर्तकीके ताण्डव नृत्यका रङ्गभूमि हो रहा था ऐसे जीवन्धर स्वामीने उन्हें सारभूत जिनधर्मका उपदेश दिया सो ठीक ही है क्योंकि कूपमें पड़नेवाले मनुष्योंकी कौन उपेक्षा करता है ? ॥६॥ जिस प्रकार चावलोंके बिना पानी अग्नि आदि समस्त सामग्री इकट्ठी कर लेनेपर भी भोजन बनानेका उपक्रम सफल नहीं होता उसी प्रकार तत्त्वज्ञानके बिना केवल शरीरको कष्ट पहुँचाने मात्र से तपस्या सफल नहीं होती है ॥ १०॥ आप लोग जटाजूट रखाकर, ललाटपर जो सूर्यका संताप झेलते हैं वह सब व्यर्थ है । हे विद्वानो ! सदा निष्फल रहनेके कारण यह हिंसा युक्त तपश्चरण करना ठीक नहीं है ॥११॥ आप लोग बड़ी बड़ी जटाएँ रखे हुए हैं सो स्नानके समय बहुतसे जन्तु इन जटाओंमें आकर लग जाते हैं पश्चात् वे ही जन्तु अग्निमें गिरकर क्षण भरमें नष्ट हो जाते हैं। यह आप लोग स्वयं देख लें ॥१२॥ इसलिए आप लोग इस क्लेशकारी तपको छोड़कर उस परम श्रेष्ठ दिगम्बर रूपको धारण करो जिसमें कि मुक्तिरूपी लक्ष्मी सदा निकट रहती है तथा जो जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंकी भक्तिसे सदा युक्त रहता है ॥१३॥
____ इस प्रकार जो मुक्तिरूपी स्त्रीका संगम करानेके लिए मधुर वचनोंके समान थे, संसाररूपी विशाल किवाड़ोंको खोलनेके लिए जो उत्तम कुंजीके समान थे, और धर्मरूपी राजमार्गके द्वार में प्रवेश करानेके लिए जो प्रतीहारीके समान आचरण करते थे ऐसे अपने गम्भीर वचनोंके प्रभावसे संभावित कुछ तपस्वियोंको मिथ्यामार्ग छोड़नेमें तत्पर और समीचीन मार्ग स्वीकृत करनेमें निपुण देखकर जिनका हृदय बहुत भारी संतोषसे व्याप्त था ऐसे जीवन्धर स्वामी उस तपोवनसे निकलकर दक्षिण देशमें पहुँचे । वह दक्षिण देश स्वभावसे ही सुन्दर था, नगर