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________________ षष्ठ लम्भ २८३ इस प्रकार आधा राज्य और कामके साम्राज्यकी लक्ष्मीस्वरूप पद्माको पाकर जीवन्धर स्वामीका हृदयकमल आनन्दकी तरङ्गोंके आघातसे विकसित हो उठा था ॥४६।। इस प्रकार महाकवि श्री हरिचन्द्रविरचित जीवन्धरचम्पू-काव्यमें __पद्माकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला पाँचवाँ लम्भ पूर्ण हुआ। षष्ठ लम्भ स्तनोंके भारसे जिसकी शरीरलता झुक रही थी ऐसी कमलमुखी पद्माको चिरकाल तक क्रीड़ा कराते हुए जीवन्धर कुमार उसी चन्द्राभा नगरीमें रहे और गुणरूपी रत्नोंके लिए रोहण गिरिकी तुलना प्राप्त करनेवाले पद्माके बत्तीस भाइयोंके द्वारा पूजा-सत्कार प्राप्त करते रहे ॥ १ ॥ किसी एक दिन समस्त प्राणियोंका सन्ताप नष्ट करनेवाला तथा समस्त लोकमें देदीप्यमान जीवन्धर स्वामीकी भुजाओंका प्रताप देख लज्जासे ही मानो जिसका निजका प्रताप संहृत हो गया था, इच्छानुकूल अभिसारके रुक जानेसे जिन्हें क्रोध उत्पन्न हुआ था ऐसी पुंश्चली स्त्रियोंके लाल-लाल कटाक्षोंकी छटासे ही मानो जिसकी निजकी किरणें संहृत हो गई थी और साथ लाये हुए कमलिनीके हदयानुरागकी परम्पराओंसे ही मानो जिसका मण्डल केशरके समान लाल हो गया था ऐसा सूर्य जब अस्ताचलके शिखरपर सुवर्ण कलशकी शङ्का करने लगा था। सायं कालिक सुगन्धित शीतल एवं मन्द पवनसे हिलने वाली लतारूपी सुन्दर अङ्गुलियोंके द्वारा जो मानो बुला ही रहे थे ऐसे वनवृक्षोंके लिए व्याकुल शब्दोंके बहाने प्रत्युत्तर देकर जब पक्षी दौड़नेमें तत्पर थे । क्रम क्रमसे बन्द होने वाले दलोंके द्वारा जो मानो सूर्यकी किरणोंकी गिनती ही लगा रहे थे ऐसे कमलोंके फूल जव निमीलित हो रहे थे । सिन्दूर जैसी लाल लाल कान्तिसे व्याप्त सन्ध्याकी लाली जब पश्चिम दिशामें बढ़ रही थी, जो प्रकट होने वाले अन्धकार समूहके मानो बीज ही थे ऐसे भ्रमर जब कमलाकरको छोड़ कुमुदाकर पर आक्रमण कर रहे थे तब अन्धकारका समूह वृद्धिङ्गत हुआ। जब लोकका दीपक सूर्यलोक रूपी घरको प्रकाशित कर बुझ गया तब उसके कज्जलके समान काला-काला अन्धकार उत्पन्न हो गया ॥२॥ उसी क्षण जिनके मुखकमल एक दूसरेसे विमुख हो गये हैं ऐसे चकवा-चकवियोंके युगल अर्धभक्षित मुरार छोड़ मूछित होते हुए विघट गये-विरही हो गये ॥३॥ सूर्यके विरहसे जिसका समस्त अङ्ग व्याकुल हो रहा है, अन्धकार समूहके बहाने जिसके केश बिखर रहे हैं और नक्षत्ररूपी मणियोंके समूहके बहाने जो आँसुओंकी बूंदें धारण कर रही है ऐसी आकाशलक्ष्मी उस समय ऐसी जान पड़ती थी मानो पतिपर विपत्ति आनेके कारण रुदन ही कर रही थी ।।४।। जब चन्द्रमाने देखा कि हमारी स्त्री रात्रिको अन्धकार रूपी भील रोक रहा है तब क्रोधसे ही मानो लाल होता हुआ वह पूर्वाचलपर आ डटा ॥५॥ तदनन्तर चन्द्रमाको पूर्व दिशा रूपी विशालाक्षीका मुखचुम्बन करनेमें चतुर देखकर ही मानो जब नगरके तरुण जन अपनी स्त्रियोंका मुखचुम्बन करनेमें लग गये, चन्द्रमाकी किरणोंके स्पर्शसे चन्द्रकान्त मणिके फरसको द्रवीभूत देखकर ही मानो जब युवती स्त्रियाँ पतिके हाथका स्पर्श पाते ही द्रवीभूत होने लगी, तत्काल उमड़ने वाले समुद्रको देखकर ही मानो जब काम रूपी सागर सब ओरसे लहराने लगा, सरोवरमें उत्पन्न हुए कमलोंके समान जब कुलटा स्त्रियोंके मुखतट निमीलित हो गये और क्रमसे राजमहलमें जब सब लोग सो गये तब किसीके द्वारा विना देखे चुपकेसे ही जीवन्धर स्वामी नगरसे बाहर निकल पड़े।
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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