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________________ तृतीय लम्भ इस प्रकार अलंकृत और व्यवस्थापक जनोंके द्वारा यथास्थान बैठाये हुए उन दोनों दम्पतियोंसे सुशोभित एवं मणिमय दीपक तथा अन्य माङ्गलिक वस्तुओंसे युक्त वह रत्ननिर्मितवेदी देवदम्पतियोंसे सहित सुमेरु पर्वतके तटके समान जान पड़ती थी। ___समान अवस्था तथा समान सौन्दर्य से अलंकृत उक्त वधू-वरने सिद्ध प्रतिमाके अभिषेक जलसे पवित्र हो किसी बड़े आसनको अलंकृत किया-उसपर विराजमान हुए ॥ ४६ ॥ तदनन्तर जिस समय बजानेके दण्डसे ताड़ित निशान आदि बाजोंके शब्दोंसे समस्त दिशाओंके तट शब्दायमान हो रहे थे, कामदेवकी स्त्री-रतिके पदनू पुरोंकी झनकारका अनुकरण करनेवाले मधुरगानमें चतुर वेश्याओंके नृत्यसे जिसकी शोभा बढ़ रही थी, जब वन्दीजनोंके मुखारविन्दके मकरन्दके समान जान पड़नेवाले विरुदगान गाये जा रहे थे और जो कल्याणकारी उत्तमोत्तम गुणोंसे सहित था ऐसे मुहूर्त में विद्याधरोंके राजा गरुड़वेगने अपने हाथकी कान्तिरूपी पल्लवोंके समान अशोक वृक्षके श्रेष्ठ पल्लवसे जिसका मुख सुशोभित हो रहा है ऐसा सुवर्ण कलश हाथसे उठाया। राजाने अपने हस्तरूपी कमलोंको विकसित करनेके लिए आये हुए सूर्यके समान शोभा पानेवाले सुवर्णकलशसे जीवन्धर कुमारके हाथपर यह कहते हुए जलकी बड़ी मोटी धारा छोड़ी कि आप दोनों दीर्घकाल तक जीवित रहें॥४७॥ कुरुवंशको प्रकाशित करनेके लिए दीपकके समान जीवन्धर कुमारने उस विद्याधर-पुत्रीका पाणिग्रहण किया और उसके स्पर्शसे उत्पन्न हुए सुखको अपने अन्तरङ्गमें देखनेके लिए मानो तत्काल नेत्र वन्द कर लिये ॥ ४ ॥ जीवन्धरके हाथका स्पर्श पाकर वधू गन्धर्वदत्ता ऐसी हो गई थी जैसी कि चन्द्रमाकी किरणोंका स्पर्श पाकर चन्द्रकान्तमणिकी शिला हो जाती है ।। ४६ ॥ उस समय अपने कान्तिके पूरकी तरङ्गोंके मध्यमें स्तनरूपी तुम्बीफलके सहारे तैरती हुई उस नवयुवतीको देखकर जीवन्धर कुमार बहुत भारी आश्चर्य के साथ आनन्दित हुए थे ॥ ५० ॥ चूंकि कमलयुगलने अनेक प्रकारसे तपमें स्थिर रहकर पुण्यसंचय किया था इसीलिए फलस्वरूप उसके दोनों चरण बन सके थे यदि ऐसा न होता तो दोनो चरण हंसों ( पक्षमें तोड़र) का आश्रय लेकर हृदयहारी मनोहर शब्द कैसे करते ? ॥५।। पैरकी किरणोंसे जिनका अग्रभाग लाल हो रहा है ऐसे उसके मुख इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो अन्य स्त्रियोंके लिए सुख देखनेके अर्थ विधाताके द्वारा बनाये हुए अतिशय निर्मलमणिमय दर्पण ही हों ॥५२॥ इसके कुछ-कुछ लाल नखोंने कुरवक पुष्पकी कान्ति जीत ली थी और चरण-कमलकी कान्तिने अशोक वृक्षका पल्लव जीत लिया था ॥५३॥ मैं गन्धवंदत्ताके जङ्घायुगलको कामदेवके तरकसका युगल समझाता हूँ अथवा कामदेवके वाणोंको तीक्ष्ण करनेके लिए वज्रनिर्मित मसाण जानता हूँ। ५४ ॥ तपाये हुए सुवर्णके समान सुन्दररूपको धारण करनेवाले उसके दोनों ऊरू ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो स्तनरूपी गुम्बजोंसे सुशोभित उसके शरीररूपी कामायतनके दो खम्भे ही हों ॥५५॥ इसका नितम्ब-मण्डल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो दुकूलरूपी स्वच्छ जलसे अलंकृत वालू का टीला ही था, अथवा कामरूपी सागरमें डूबनेवाले तरुणजनोंके तैरनेके लिए यौवनरूपी अग्निसे तपाया हुआ सुवर्ण-कलशका युगल ही था, अथवा वस्त्रसे परिवृत कामदेवका एक चक्रवाला वाहन ही था, अथवा शृङ्गाररूपी राजाके क्रीडाशैलका मण्डल ही था। इसकी रोमराजि ऐसी जान पड़ती थी मानो चन्दनसे लिप्त स्तनरूपी पर्वतपर चढ़नेवाले कामदेवके लिए मरकत मणियोंकी बनी सीढ़ियोंकी पंक्ति ही थी, अथवा सौन्दर्यरूपी नदीके ऊपर फैला हुआ पुल ही था, अथवा नाभिरूपी वापिकामें गोता लगानेके लिए उद्यत कामदेवरूपी हाथीके गण्डस्थलसे उड़ती हुई भ्रमरोंकी पङ्क्ति ही थी, अथवा वहुत भारी स्तनोंका बोझ धारण करनेकी चिन्तासे
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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