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________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य उस समय दिनमें जलनेवाले दीपकके समान निष्प्रभ काष्ठाङ्गारने राजाओंको इकट्ठाकर इस प्रकार भड़काया कि वस्त्र तथा बर्तनोंके खरीदने-बेचनेमें योग्य वैश्यका लड़का स्त्री-रत्नके योग्य कैसे हो सकता है ? फलस्वरूप मूर्ख राजाओंने सब ओरसे सेना आगेकर युद्ध करना शुरू कर दिया। इधर उत्कृष्ट पराक्रमके धारक जीवन्धर कुमार अपनी-अपनी सेनाओंसे युक्त विद्याधरोंसे आवृत हो जयगिरि नामसे प्रसिद्ध मदोन्मत्त हाथीपर सवार हो युद्धभूमिमें आये और शत्रुओंके समूहको विदीर्ण करने लगे । फलस्वरूप कुछ ही समयमें उन्होंने शत्रुओंको दिशाओंमें खदेड़ दिया और वे दुःखके कारण जहाँ तहाँ जा छिपे ॥३७।। तदनन्तर श्रीदत्त वैश्यने रत्नमय खम्भोंकी फैलनेवाली निर्मल कान्तिसे समस्त दिशाओंके अन्तरालको व्याप्त करनेवाली एवं एक स्थानपर उदित करोड़ों सूर्योंकी दीप्तिका संदेह बढ़ानेवाली एक शाला (पट-मंडप) बनवाई और उसमें तत्काल ही पद्मराग मणियोंसे खचित एक ऐसी वेदी बनवाई जो कि सबके हृदयमें स्थित राग-परम्पराके मूर्तरूपके समान जान पड़ती थी ॥३८॥ तदनन्तर विद्याधरोंके राजा गरुड़वेगने आकर स्फटिकमणिके पीठपर स्थित देव-दम्पती तुल्य वधू-वरका अपनी भुजारूपी सपके फणामणिके समान दिखनेवाले मणिमय कलशोंसे भरती हुई जलधाराओंके द्वारा अभिषेक मङ्गल-माङ्गलिक स्नान पूर्ण किया। उस समय जलधाराकी सफेदी हाथके नाखूनोंकी कान्तिसे दूनी हो रही थी और भुजारूपी वंशसे निकलनेवाले मोतियों के झरनोंकी सम्भावना बढ़ा रही थी। क्षीरसमुद्रके फेन-समूहके समान दिखनेवाले वस्त्रोंको पहिने हुए वे दोनों दम्पती अलंकारगृहके मध्यमें हीरकजटित पीठपर पूर्व दिशाकी ओर मुँहकर बैठाये गये ॥३६॥ इन दोनोंके शरीर स्वभावसे ही सुन्दर थे यहां तक कि आभूषणोंको भी सुशोभित करनेवाले थे इसलिए उनमें आभूषण पहिनानेका प्रयोजन केवल मङ्गलाचार ही था, शोभा बढ़ाना नहीं ॥४०॥ अथवा भूपण समूहकी शोभा बढ़ानेवाले उनके शरीरमें जो आभूषण पहिनाये गये थे वे केवल दृष्टिदोषको नष्ट करनेके लिए ही पहनाये गये थे ॥४१॥ सर्वप्रथम उस खञ्जनलोचनाके शिरपर सखीने वह मांग निकाली थी जो कि मुखकी कान्तिरूपी नदीके मार्गके समान जान पड़ती थी और तदनन्तर उसपर उस नदीके फेनपुञ्जके समान दिखनेवाली फूलोंकी माला पहिनाई थी। इसके बाद मुख पर नीलमणिकी वह बेंदी पहिनाई थी जो कि मुखरूपी चन्द्रमाके कलङ्क-चिह्नके समान जान पड़ती थी और इसके पश्चात् आँखोंमें अञ्जन लगाया था जो कि मुखपर आक्रमण करनेवाली आँखोंकी सीमान्त रेखाके समान जान पड़ता था ॥४२॥ आभूपण पहिनानेवाली सखीजनोंने गन्धर्वदत्ताके कपोलपर जो मकरीका चिह्न बनाया था वह ऐसा सुशोभित होता था मानो 'यह कामदेवकी पताका है' ऐसा समझकर साक्षात् कामदेव के पताकाकी मकरी ही वहाँ आ पहुँची हो अथवा उसके कपोलमण्डलके सौन्दर्य-सरोवरमें जो युवकजनोंके नेत्ररूपी पक्षी पड़ रहे थे उन्हें बाँधनेके लिए विधाताने एक जाल ही बना रक्खा हो । ___ मृगनयनी गन्धर्वदत्ताके कपोलोंपर कस्तूरी-द्वारा निर्मित पत्राकार रचनाके बहाने केशोंका प्रतिविम्ब पड़ रहा था और वह अन्धकारके बच्चोंके समान जान पड़ता था। साथही उसके दोनों कानोंमें जो दो कर्णफूल पहिनाये गये थे वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो अन्धकारके उन दो बच्चाको शीघ्रतासे नष्ट करनेके लिए दो सूर्य ही आ पहुँचे हों ॥ ४३ ।। फूलोंसे सुशोभित उसका केशपाश ऐसा जान पड़ता था मानो जगत्त्रयकी विजयके लिए प्रस्थान करनेवाले कामदेवका बाणोंसे भरा तरकस ही हो ॥४४॥ सखीके द्वारा बनाई हुई उसको सर्पतुल्यवेणी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो शरीररूपी कामदेवके धनुषकी डोरी ही हो अथवा मुखकमलकी सुगन्धिके लोभसे आई हुई भ्रमरोंकी पङक्ति ही हो ॥ ४५ ॥
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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