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________________ २६४ जीवन्धरचम्पूकाव्य धीरे-धीरे पल्लवित होती रही। आज तुम्हारे समागमसे राजा उसे फलित-फलोंसे युक्त करना चाहता है। __मैं धर नामका विद्याधर हूँ। तुम्हें नौकाके नष्ट होनेका भ्रम उत्पन्न कराकर इस पर्वतपर ले आया हूँ । इतना कहकर उस विद्याधरने अपने ओठ बन्द कर लिये अर्थात् वह चुप हो गया ॥२१|श्रीदत्त वैश्य भी यह सब सुनकर बहुत हर्पित हुआ सो ठीक ही है क्योंकि नष्ट हुए धनकी प्राप्ति क्या इच्छानुसार हर्प उत्पन्न नहीं करती अर्थात् अवश्य करती है ॥२२।। तदनन्तर श्रीदत्तने राजा गरुड़वेगके दर्शन किये । उस समय विद्याधरियाँ अपने करकमलोंमें स्थित राजहंस पक्षियों के युगलके समान आचरण करनेवाले चमर उसपर डुला रही थी इसलिए वह ऐसा जान पड़ता था मानो राजलक्ष्मीके नयन-युगलसे निकलते हुए कटाक्षोंकी धारासे ही व्याप्त हो रहा हो ।।२३।। जो कामदेवरूपी वृक्ष की मनोहर मञ्जरियोंके समान जान पड़ती थीं अथवा लहराते हुए सौन्दर्यसागर की मानो तरङ्गे थीं अथवा सातिशय सुन्दरतारूपी नदीकी मानो झिरें थीं । ऐसी एकसे एक बढ़कर वेश्याओंसे वह सुशोभित हो रहा था। विद्याधर राजाओंके मुकुटतटमें जो मोती लगे हुए थे उनमें उसके चरण-कमलोंका प्रतिबिम्ब पड़ रहा था। उसका वक्षःस्थल हारयष्टिसे सुशोभित था इसलिए झिरनों से सुशोभित हिमालयके समान उसकी शोभा थी ।।२५।। इतना ही नहीं, उसका शासन समस्त विद्याधर राजाओंके मुकुटपर आरूढ़ था। जहाजका व्यापारी श्रीदत्त उक्त विशेषणविशिष्ट राजा गरुडवेगको देखकर आनन्दरूपी समुद्र के परं पारको प्राप्त हुआ ॥२६।। विद्याधरोंके राजा गरुडवेगने श्रीदत्तका बहुत भारी सत्कार किया, उसे सभाङ्गणमें सुशोभित मणिमय आसनपर बैठाया, मन्द मुसकान तथा संभापग आदिके द्वारा उसे सन्तुष्ट किया । उस समय श्रीदत्त भी ऐसा जान पड़ता था मानो मूर्तिधारी सौहार्द-मित्रता ही हो । राजाने अपनी पुत्रीके स्वयंवरका समाचार श्रीदत्तको सुनाया। सुनकर उसे वह वृत्तान्त ऐसा लगा मानो कानोंके लिए अमृत ही हो अथवा मनके लिए रसायन ही हो । अन्तमें राजाने अपनी पुत्री तथा नीति की जाननेवाली सेना श्रीदत्तके आधीन कर दी। श्रीदत्त वैश्य, सम्मानपूर्वक दिये हुए विद्याधरराजके आदेशको पाकर तथा सेनाको आगेकर पहले हर्षको प्राप्त हुआ और तदनन्तर उसके साथ अपनी निवासभूमि-राजपुरी को प्राप्त हुआ ॥२७॥ नगरीमें आनेके बाद श्रीदत्तने एक उत्तम स्वयंवरमण्डप बनवाया और फिर राजाकी अनुमति लेकर इस वृत्तान्त की समस्त नगरोंमें घोषणा करा दी। उस समय जो स्वयंवरमण्डप वनाया गया था वह अनेक रत्नोंके समूहसे निर्मित था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो राजपुर की लक्ष्मीका मुख देखनेके लिए बनाया गया मणिमय दर्पण ही हो। हरी और लाल मणियोंका प्रकाश आकाशमें फैल रहा था जिससे मेघोंके बिना ही आकाशमें इन्द्र-धनुषकी शङ्का कर रहा था । कुङ्कम रससे मिला जल जहाँ-तहाँ विखरे हुए फूलोंके समूहसे सुगन्धित था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो वीणामें जीतनेवाले मनुष्यकी जो कीर्तिरूपी लता आगे चलकर उत्पन्न होगीउसके वीजोंकी पङ्क्ति ही बिखेर दी गई हो। इसके सिवाय वह मोतियोंसे बनी हुई रङ्गावलीविभिन्न रङ्गके वेल-बूटों को भी धारण कर रहा था। उस घोपणाको सुनकर राजा लोग अपनी सेनाओंके द्वारा दिशाओंके प्रदेशोंको व्याप्त करते हुए राजपुरी नगरीमें इस प्रकार आ पहुँचे जिस प्रकार कि सैकड़ों नद समुद्रके पास आ पहुँचते हैं। उस समय उस नगरीमें बहुत बड़ी-बड़ी पताकाएँ फहरा रही थीं उनसे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो सबको बुला ही रही हो ।।२८।। अपने सुन्दर रूपसे कामदेव को पराजित करनेवाले राजा लोग उस स्वयंवर-मण्डपमें हीरोंसे निर्मित मंचोंपर इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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