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तृतीय लम्भ पास पहुँच रही थी जिससे किनारेपर चलने वाले विद्याधरोंको आकाशम्पी सरोवरमें कमलिनी के हरे पत्तोंकी शङ्का उत्पन्न कर रहा था। कहीं, सघन वृक्षोंमें मेघमालाकी आशंकाकर सुवर्णमय भूमिपर मयूर नाच रहे थे और उनका प्रतिविम्ब उस भूमिपर पड़ रहा था जिससे स्थलपर फूले हुए नील कमलोंके समूहका संदेह उत्पन्न करता था। कहीं सरोवर में उत्पन्न सारस और राजहंस पक्षियोंके कल-कूजनसे, कहीं लताओंपर खिले पुष्पोंका मकरन्द-पान करनेसे उन्मत्त हुए भ्रमरों की मनोहर भंकारसे और कहीं उपवनके अलंकारभूत आम्रवृक्षके पल्लव खानेसे गीली कोयल की मनोहर कण्ठध्वनिसे कामदेवको जागृतकर रहा था तो कहीं वेतोंके सुन्दर निकुञ्जोंमें विहार करने वाली विद्याधरियोंकी संभोगान्तमें होनेवाली थकावटको दूर करनेमें निपुण मन्द-मन्द वायुसे मनोहर दिखाई देता था ।
उस विजयार्ध पर्वतपर अपने आनेका समस्त कारण विद्याधरने श्रीदत्त वैश्यसे स्पष्ट कर दिया ॥ ११ ।। उसने कहा कि इस पर्वतकी दक्षिण श्रेणीपर गान्धार देशकी आभरणभूत एक नगरी है जो कि निराधार होनेके कारण आकाशसे गिरी हुई देवनगरीके समान सुशोभित है ॥ १२ ॥ विद्याधर लोग उस नगरीको 'नित्यालोका' इस सार्थक नामसे पुकारते हैं और मेघ हमेशा ही उसके झरोखोंके द्वारके समीप घूमते रहते हैं ।। १३॥ उस नगरीके कोटोंकी पङ्क्ति स्त्रियोंके वक्षःस्थलके समान हमेशा ही देवों (पन में युवकों) के मनको हरण करती रहती है क्योंकि जिस प्रकार स्त्रियोंके वक्षःस्थलसे किरणोंके समूह म्फुरित होते रहते हैं उसी प्रकार कोटोंकी पङ्क्तिसे भी किरणोंके समूह स्फुरित होते रहते हैं और जिस प्रकार स्त्रियोका वक्षःस्थल पयोधरों -स्तनोंपर सुशोभित वस्त्रसे अलंकृत होता है उसी प्रकार कोटोंकी पङ्क्ति भी पयोधरों-मेघोंसे सुशोभित आकाशमें अलंकृत होती रहती है ।। १४ । उस नगरीके गोपुरके अग्रभागपर जो इन्द्रनीलमणिकी पुतली बनी हुई है वह शरद् ऋतुके मेघोंकी मालासे ऐसी जान पड़ती है मानो उसने महीन रेशमी वस्त्र ही पहिन रखा हो ।। १५ ॥ जिसका वैभव समस्त विद्याधरोंके द्वारा सेवित है तथा जो मनोहर यशरूपी धनको धारण करनेवाला है ऐसा गरुडवेग नामका राजा उस नगरीका ठीक उसी तरह पालन करता है जिस प्रकार कि इन्द्र स्वर्गपुरीका करता है ॥ १६॥ गरुडवेगकी रानीका नाम श्रीधारिणी है । यह रानी ऐसी सुशोभित होती है मानो शरीरको धारण करनेवाली कान्तिकी परम्परा ही हो, अथवा शरीरवती चन्द्रमाकी कला ही हो अथवा स्थिर रहनेवाली दूसरी विजली हो हो ॥१७॥ राजा गरुडवेगके एक गन्धर्वदत्ता नामकी पुत्री है जो विनयसे उञ्चल है
और कामदेवके बड़े भारी महलकी अटारीमें जलनेवाली मानो मणिमयी दीपिका है ।। १८ ।। जब शैशव, इस दुबली-पतली कुवलयनयनाके शरीरको छोड़नेके लिए उद्यत हुआ, और कामदेवका प्रतिहारी यौवन, जव आनेकी इच्छा करने लगा, साथही जब इसका भोलापन समाप्त हो गया
और चतुराई पासमें आ पहुँची तब इसका मध्य भाग तो अत्यन्त सूक्ष्म हो गया है और नितम्बमण्डल पर्वतके समान भारी हो गया ॥ १६ ॥ इस चञ्चलाक्षीका मुखरूपी चन्द्रमा, वास्तविक चन्द्रमाकी वहुत भारी निन्दा करता है, भौहें कामदेवके धनुपकी सुन्दरताको हथिया लेती हैं, स्तन धीरे-धीरे लिकुच-फलकी तुलना प्राप्त कर रहे हैं और मन्थर पाद-विन्यास मदोन्मत्त हंसीको जीत रहा है ॥ २० ॥
श्रेष्ठ आकारको धारण करनेवाली गन्धर्वदत्ता यद्यपि स्वयं अद्वितीय है तो भी राजपुर नगरमें जो उसे वीणा बजानेमें जीतेगा उसकी वह द्वितीया अर्थात् भार्या होगी, इस प्रकार ज्यौतिषी लोगोंके वचनोंमें विश्वास होनेसे राजाकी चिन्ता बढ़ती रही। आज उसने अपनी कान्ताके साथ सलाहकर मुझे तुम्हें लानेके लिए भेजा है। एक बार राजपुर नगरके उद्यानके अलङ्कारभूत सागरसेन नामक जिनराजके समीप तुम दोनोंकी प्रीतिरूपी लता उत्पन्न हुई थी वह प्रीतिलता