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द्वितीय लम्भ
बहती हुई खून की नदीपर पुल ही बांध दिये हों । उस भयंकर युद्धके समय भील-योद्धाओंके द्वारा लगातार छोड़े हुए वाणोंकी धारासे जिनका समस्त शरीर भर गया है ऐसे काष्टाङ्गारके सैनिक भयसे तत्-तद् दिशाओं में भाग गये। साथ ही 'भीलों की सेना जीत गई। इस घोषणाने गोपालांकी वसतिको क्षुभित कर दिया ।
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उस समय वैश्योंके नायक चतुर नन्दगोपने अपने मित्रोंके साथ आलोचनापूर्वक निश्चय किया और जिस वातको वह कहना चाहता था उसे उसने राजा काष्ठाङ्गारके कान तक पहुँचा दी ||२५||
तदनन्तर नन्दगोपकी प्रेरणा पाकर राजा काष्टाङ्गारने नगरके चौराहोंपर जोरदार घोषणा करा दी कि जो भी पुरुष भीलोंके समूहसे गायें छुड़ाकर लावेगा उसे गोपालशिरोमणि नन्दगोप की पुत्री सुवर्णकी सात पुत्तलिकाओंके साथ प्रदान की जावेगी। इस घोषणाको सुनकर बहुत भारी कौतूहलको धारण करनेवाले जीवन्धर कुमारने वह घोषणा बन्द करा दी |
जिनका पार्श्वभाग अनेक मित्रोंसे सहित है ऐसे जीवन्धर कुमार महलसे इस तरह निकले जिस तरह कि अनेक हाथियोंसे घिरा हुआ यूथपति ( झुण्डका मालिक ) हिमालयकी गुफासे निकलता है ||२६||
तत्पश्चात् जीवन्धर हैं प्रमुख जिनमें ऐसे योद्धा धनुपकी टंकार और सिंहध्वनिके द्वारा दिशाओंको मुखरित करते हुए रणाङ्गणकी ओर चले। उस समय वे सफेद घोड़ेसे जुते रथोंको अलंकृत कर रहे थे । उनके वे सफ़ेद घोड़े ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने यशरूपी क्षीर सागरकी तरङ्ग ही हों। उन घोड़ोंके पार्श्वभाग चँवरोंके युगलसे सुशोभित थे इसलिए ऐसे प्रतीत होते थे मानो आकाशमार्ग में चलनेके योग्य दो पंखोंको ही धारण कर रहे हों । मुखसे निकले हुए फेनके टुकड़ोंसे उनका अग्रभाग व्याप्त हो रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था कि वेगके द्वारा पराजित वायुके द्वारा समर्पित मोतियोंकी भेंट ही स्वीकृत कर रहे हों । वेग देखनेके क्षण ही लज्जित होकर सूर्यके घोड़े आकाशरूपी अटवी के बीहड़ मार्गों में भाग गये थे मानो उन्हें हँढ़ने के लिए ही वे घोड़े आकाश मार्गकी ओर उछल रहे थे तथा विजयी थे । जो समस्त जगत्को अन्धा करनेमें समर्थ थी ऐसी रथों के पहियोंसे विदारित पृथिवीतलसे उठी धूलिकी पक्तिको वे योद्धा पताकाओं के वस्त्रोंकी वायुसे दूर उड़ा रहे थे । वे योद्धा क्या थे मानो शरीरधारी वीर रस ही थे अथवा मूर्तिधारी उत्साह ही थे । केयूरसे सुशोभित उनके भुजदण्ड ऐसे जान पड़ते थे मानो विजयलक्ष्मी के निवासभवनके सुवर्णनिर्मित प्राकार ही हों और मोतियोंकी मालाओंसे सुशोभित उनके वक्षःस्थल ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मीकी विहारभूमिमें स्थित खेलनेके भूले ही हीं ।
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उस रणाङ्गणमें सर्वप्रथम वाणोंके समूहसे परस्पर ऐसा युद्ध हुआ कि जो क्षणभरके लिए क्रोध से रहित होकर भी क्षमासे रहित था ( पक्षमें व्रणसे रहित था ) और जहाँ शिखाहीनसे भी शिखावालेकी उत्पत्ति होती थी ( पक्षमें वाणसे अग्नि उत्पन्न होती थी ) ॥ २७ ॥ जो नखोंकी किरणरूपी मञ्जरीसे सुगन्धित थी तथा जिसपर शिलीमुख अर्थात् वाण ( पक्ष में भ्रमर ) आकर विद्यमान थे ऐसी धनुषलताको धारण करनेवाले जीवन्धर वृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे; क्योंकि जिस प्रकार वृक्ष विशाल शाखाओंसे सुशोभित होता है उसी प्रकार जीवन्धर भी भुजारूपी विशाल शाखाओंसे सुशोभित थे । इसके सिवाय जीवन्धर, निरन्तर ही विजयलक्ष्मी विहारकी मुख्य भूमिस्वरूप थे ॥ २८ ॥ कुण्डलाकार धनुषके मध्य में स्थित, क्रोधसे लाल-लाल दिखने वाला जीवन्धर कुमारका मुख, परिधिके मध्य में स्थित तथा सन्ध्याके कारण लाल-लाल दिखाने वाले चन्द्रमाके मण्डलके साथ स्पर्धा करता था ॥ २६ ॥ जीवन्धर कुमारके द्वारा छोड़े हुए देदीप्यमान वाण ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो युद्धमें छिपे भीलों को देखने के लिए दीपक ही आये हों ॥ ३० ॥