SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ जीवन्धरचम्पूकाव्य करने वाला था, कवियोंके वचनोंका अगोचर था, कीर्तिकी स्फूर्ति के लिए अंकुर उगनेका क्षेत्र था. विजयलक्ष्मीके विलासका निवास स्थल था, लक्ष्मी और सरस्वतीकी आस्थाका स्थान था, मानो सब लोगोंके नेत्रोंका चलता फिरता सुख ही था । पृथिवीरूपी महिलाका मानो जीवित सुख ही था, मूर्तिधारी मानो प्रतापका पटल ही था, मानों सजीव गाम्भीय ही था, अथवा इकट्ठा हुआ शौर्य ही था, अथवा रूपधारी कुरूवंशका भाग्य ही था अथवा ब्रह्माका अपनी समस्त चतुराई वतलानेका स्थान ही था । इस प्रकार उनका यह रूप प्रतिदिन वृद्धिंगत हो रहा था। अथानन्तर एक समय जो कार्य और नाम दोनोंसे ही कालकूट था और मनुप्यकी आकृति को प्राप्त हुए अन्धकारके समान जान पड़ता था ऐसे भीलोंके राजाने सेनासहित आकर राजपुरी की समस्त गायें हर लीं ॥२२॥ तत्पश्चात् गोपालोंके चिल्लानेसे जिसे समस्त वृत्तान्त मालूम हुआ है ऐसा काष्ठाङ्गार भी अधीर हो उठा। जिस प्रकार सिंह शृगालके द्वारा किये हुए अपमानको नहीं सहता है उसी प्रकार काष्ठाङ्गार भी असमान-हीन शक्तिके धारक भिल्लराजके द्वारा कृत अपमानको नहीं सह सका। भीतर ही भीतर जलनेवाली क्रोधाग्निकी ज्वालाओंके समान दिखनेवाली लाल-लाल कान्तिसे उसका मुख व्याप्त हो गया। फलस्वरूप उसने कालकूटकी सेनाको नष्ट करने के लिए एक बहुत बड़ी सेना भेजी । उसको वह सेना शत्रुस्त्रियोंके गर्भजात वालकोंको नष्ट करने में समर्थ भेरियोंकी भांकारसे समुद्रको गर्जनाको तिरोहित कर रही थी । कालकूटके बहाने इकटे हुए अधिकारको नष्ट करनेके लिए विधाताके द्वारा विरचित अनेक सूर्यमण्डलोंसे सुशोभित उदयाचलोंके समान दिखनेवाले, सुवर्णकी ढालोंसे युक्त गण्डस्थलवाले हाथियोंसे भरी थी । जिनमें लोहेकी लगामें लग रही हैं ऐसे मुखोंके विलसे निकलते हुए लाला-जलके द्वारा जिनके मुख फेनिल हुए हैं और उसके कारण जो युद्धके आँगनमें शत्रुओंके यशका पान करते हुए जान पड़ते थे ऐसे घोड़ोंसे, रयोंके समूहसे तथा पैदल सेनाओंसे परिपूर्ण थी। __ वह कालकूट काष्ठाङ्गारकी सेनाको देख अपनी सेना आगेकर चला। उस समय वह क्रोधाग्निके द्वारा शत्रुओंकी सेनाको सब ओरसे जलानेकी इच्छा करता हुआ ठीक यमराज के समान जान पड़ता था ॥२३।। तदनन्तर दोनों सेनाओंने मिलकर बलपूर्वक ऐसा युद्ध किया जिसका कि कोई शानी नहीं रखता था। उस युद्ध में दोनों ही सेनाएं बाणोंके समूहसे परस्पर एक दूसरेको विदीर्ण कर रही थीं। यद्यपि युद्ध में उठती हुई धूलिसे अन्धकार छा गया था तो भी चलती हुई तलवारोंके घातसे विदीर्ण हुए हाथियोंके गण्डस्थलोंसे जो मणियोंके समूह बाहर निकल रहे थे उनकी कान्तिके प्रवाहसे युद्धक्षेत्र एक दम प्रकाशमान हो उठता था ॥२४॥ उस समय शत्रुओंके हाथों में स्थित तलवारोंके द्वारा खण्डित गण्डस्थलोंसे निकलनेवाली रुधिरकी धाराओंसे सुशोभित हाथी, उन पर्वतोंका अनुकरण कर रहे थे जिनके कि दोनों ओरसे गेरूके झरने झर रहे हैं। अत्यधिक खनकी कीचड़से युक्त युद्धके आँगनमें हमारे खुर डूब न जावें इस आशंकासे, आरूढजनोंके विषादको नष्ट करनेवाले घोड़े मानो आकाशमें चल रहे थे और मदोन्मत्त हाथियोंकी घटापर नाम तथा कार्य दोनोंसे ही 'हम हरि हैं। (सिंह हैं, घोड़े हैं ) इस तरह अपने हरि नामको प्रख्यात कर रहे थे। धनुषधारियोंके हाथ इतने जल्दी चलते थे कि किसीको समझ ही नहीं पड़ता था कि इन्होंने कब बाण धारण किया और कब छोड़ा। वे सदा धनुष चढ़ाये हुए ही दिखते थे इसलिए चित्र-लिखितसे जान पड़ते थे। कभी पदतल और कभी गगन-तलमें लपलपाती हुई भयंकर तलवारसे खण्डित मस्तकोंके समूह बहुत दूर तक जा उचटते थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानो आकाशरूपी समुद्रमें कमलोंके समूह ही हों। युद्धकी भूमिमें जहाँ-तहाँ हाथियों के खण्डित शव पड़े हुए थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो दो पुरुष-प्रमाण
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy