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जीवन्धरचम्पूकाव्य
उसे वह साधु आपके वंशके निश्चयसे पुष्पित करना चाहता था। वह जठराग्निकी तीव्रतम वाधाको शान्त करना चाहता था तथा भोजनकी याचना करनेके लिए उसका मन विवश हो रहा था। उस ढोंगी साधुको आप अपने घर ले आये तथा उसे भोजन करानेके लिए आपने अपने रसोइयाको आदेश दे दिया ।
तदनन्तर जब आप स्वयं भोजन करनेके लिए तैयार हुए तब उस साधुने भोजन करना शुरू किया । आपके साथ भोजन करनेमें उसका अभिप्राय यह था कि वह आपके वचनरूपी द्राक्षासे मिश्रित आपके मुखकी शोभा-रूपी अमृतका पान करना चाहता था ।। १३ ॥
'यह सब भोजन गरम है, मैं कैसे खाऊँ' इस प्रकार बालस्वभावके कारण आप रोने लगे । रोते समय आपके नेत्रोंसे आँसू की धाराएँ बह रही थीं और वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो नेत्ररूपी कमलोंके युगलसे मकरन्दका पूर ही भार रहा हो । जब आपके नेत्रोंसे आँसू झर रहे थे तब ऐसा जान पड़ता था मानो आपके नेत्र कमलोंके भीतर निवास करने वाली लक्ष्मीके वक्षःस्थल पर पड़ी हुई मालाके मोती ही विखेर रहे हों। आपको रोता देख भिक्षुक कहने लगा कि आप सबको अतिक्रांत करनेवाली बुद्धिकी महिमासे सुशोभित हैं और रोनेके कारणांसे रहित हैं फिर भी आपका यह रोना कैसा ? इस प्रकार मेरा चित्त आश्चर्यरूपी चित्रके लिए दीवालका काम कर रहा है।
भिक्षुकके उक्त वचन सुनकर अपनी मन्द मुसकानके द्वारा निकलते हुए दूधकी धाराका संदेह उत्पन्न करते हुए आपने जो निम्नांकित वचन कहे थे वे वास्तवमें केला और मधुकी मधुरताको धारण कर रहे थे ।। १४ ॥ आपने कहा था कि रोनेसे श्लेष्मा (कफ) का अभाव हो जाता है, दोनों नेत्र निर्मल हो जाते हैं, नाकका मल जमीनपर जा गिरता है, तब तक भोजनकी उष्णता कम हो जाती है, शिरमें रहकर भ्रमरूप दोपको उत्पन्न करनेवाले जलके दोषकी वाधा दूर हो जाती है। यही नहीं, और भी बहुतसे परिचित गुण रोते समय उत्पन्न होते हैं ।। १५॥
इस प्रकारके वचनरूपी अमृतको कर्गपुटमें सींचते हुए आप उस भिनुकी अपार भूख देखनेसे उत्पन्न आश्चर्य से चुप हो रहे । आप दयाके समुद्र तो थे ही इसलिए आपने उसे अपने हाथका ग्रास ही दे दिया। आपका वह ग्रास ऐसा जान पड़ता था मानो हस्तकमलके नखोंकी कान्तिरूपी गङ्गा नदीके फेनका खण्ड ही हो, अथवा हस्तरूपी कल्पवृक्षके फूलोंका गुच्छा ही हो, अथवा नखरूपी चन्द्रमाओंके साथ परिचय करनेके लिए आया हुवा चन्द्रमाका बिम्ब ही हो अथवा आकाशरूपी नदीको सुखानेके लिए आया हुआ शरद् ऋतुका खण्ड ही हो । उस ग्रासको खाते ही भिक्षु तृप्तिको प्राप्त हो गया, प्रज्वलित जठराग्निके शान्त हो जानेसे उसने आपका महान् उपकार माना और अनुपम सज्जनतासे प्रेरित होकर उसने आपके लिए अत्यन्त उत्कृष्ट फलवाली कला सिखलाई-शिक्षा प्रदान की।
कवि कहते हैं कि योग्य पात्ररूपी उत्तम क्षेत्रमें लगाई हुई विद्यारूपी लता यदि बुद्धिरूपी जलसे सींची जाये तो वह सूक्तिरूपी फूलोंसे युक्त होकर दिशारूपी स्त्रियोंके कर्णालंकारके समान कीर्तिरूपी उत्तम मञ्जरीको धारण करती है ॥ १६ ॥ आश्चर्यकी बात है कि यह विद्यारूपी कल्पवृक्ष अत्यन्त उन्नतिको प्राप्त है-अतिशय ऊँचा है तो भी नम्र मनुष्य इसे प्राप्त कर लेते हैं। फूल इसमें आकर लगते हैं और मनोहर फलको प्राप्ति परलोक में होती है। इसके सिवाय एक बड़ा आश्चर्य यह है कि जो लोग इसके भूलमें आते हैं उन्हें तो यह संताप पहुँचाता है और जो इसके ऊपर हो विचरते हैं उनके संतापको यह दूर करता है ॥ १७ ॥
इस प्रकार सज्जनोंके हृदयको ठण्डा करनेके लिए चन्दनकी समानता धारण करनेवाले जीवन्धर, कानोंके लिए रसायन स्वरूप गुरुका पूर्वोक्त वृत्तान्त सुनकर चुप रह गये। उन्होंने