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________________ द्वितीय लम्भ देख राजाका वैराग्य बढ़ गया । फल स्वरूप उसने अपना राज्यका भार पुत्रके लिए सौंप दिया और स्वयं संसारके समस्त दुःखों को शान्त करनेमें दक्ष जनी दीक्षा धारण कर ली।। अनेक प्रकारके तपाको तपता हुआ वह राजा तपश्चरणके प्रभावस अत्यन्त कान्तिको प्राप्त हो रहा था, परन्तु पूर्वसंचित कर्मों के उदयसे उसे अकस्मात भरमक नामक रोग उत्पन्न हो गया ॥ ६॥ तदनन्तर जिस प्रकार कोई अग्निके तिलगेसे गीले उधनको, जुगनृसे गाढ़ अन्धकारको और निहानीसे महावनको नष्ट करनेमें समर्थ नहीं हो पाता है उसी प्रकार वह मुनि अपने थोडेसे तपके द्वारा प्रतिदिन बढ़ते हुए भस्मक रोगको शान्त करनेमें समर्थ नहीं हो सका। इसलिए उसने जिस प्रकार पहले राज्यको छोड़ दिया था उसी प्रकार अव तपके साम्राज्यको भी छोड़ दिया । अब वह पाखण्डियोंके तपसे आच्छादित हो गया अर्थात् ढोंगी साधु बन गया और जिस प्रकार किसी झाड़ीमें छिपा शिकारी इच्छानुसार पक्षियोंको पकड़ता रहता है उसी प्रकार यह साधु इच्छानुसार आहार ग्रहण करता हुआ स्वच्छन्द प्रवृत्ति करने लगा। ___ तदनन्तर बहुत भारी भूखसे पीड़ित हुआ वह साधु नगरके समीपवर्ती उद्यानमें पहुंचा। उस उद्यानमें कहीं तो अत्यन्त सघन लगे हुए अशोक वृक्षोंके नये लाल-लाल पत्ते सुशोभित हो रहे थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो संध्याकी लालीसे सुशोभित निर्मल आकाशकी सदृशता ही प्राप्त कर रहा हो और कहीं उसमें सफ़ेद सफ़ेद फूल फूल रहे थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो दूसरे उद्यानोंकी हँसी ही कर रहा हो ॥ ७ ॥ उस उद्यानमें जब कोयल पञ्चम स्वरसे मनोहर गान गाती थी तब मन्द वायु रूपी नट, भृङ्ग-वनिके बहाने मधुर आलापको भरने वाली चञ्चल लता रूपी युवतीको सब ओर नचाने लगता था ॥ ८ ॥ वह उद्यान कहीं पर निरन्तर पड़ते हुए फूलोंसे सुशोभित था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो वनदेवीकी आराधनाके लिए विछाये हुए रेशमी बिस्तरको ही धारण कर रहा हो । कहीं फूलोंका आसव पीनेसे मत्त हुए भौंरोंसे काला काला हो रहा था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो लगाये हुए अंजनके समूहको ही धारण कर रहा हो । कहीं पर अत्यन्त विस्तृत अशोक वृक्षके उत्तम पल्लवोंकी कान्तिसे सुशोभित था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो अपना अनुराग ही प्रकट कर रहा हो। कहीं पर खिले हुए लाल कमलोंकी कान्तिसे समुद्भासित सरोवरोंसे सुशोभित था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो केशरके चूर्णसे निर्मित झरने को ही धारण कर रहा हो । और कहीं पर लताओंके समूहको धारण कर रहा था उससे ऐसा दिखाई देता था मानो मूलनेके लिए ही अनेक लताओंको धारण कर रहा हो। वहाँ उस साधुने दूसरे पुत्रोंके साथ क्रीड़ा करते हुए आपको देखा। आप उस समय ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे कि आकाशमें नक्षत्रोंके समूहसे बालचन्द्र अर्थात् द्वितीयाका चन्द्र सुशोभित होता है ॥६॥ उस साधुने आपसे पूछा कि नगर कितना दूर है ? इसके उत्तरमें आपने मधुर वचन कहे थे। बोलते समय आपके दन्तरूपी मणियोंकी उज्ज्वल कान्ति बाहर फैल रही थी और उसके द्वारा आप मुखपर कमलकी भ्रान्तिसे पड़ते हुए काले काले भौंरोंको सफेद बना रहे थे ॥ १० ॥ आपने कहा था कि नगरके उपवनमें वालकोंकी क्रीड़ा देखकर कौन वृद्ध अनुमान नहीं कर लेगा कि नगर समीपवर्ती है ॥ ११॥ धूम देखकर कौन पुरुष अग्निको नहीं जान लेता और ठण्डी वायुके आनेपर कौन नहीं जान लेता कि समीप ही जल भरा है ॥१२॥ ___ इत्यादि वचनरूपी अमृतकी धाराके सिंचनसे तथा आपके सौंन्दर्यरूपी सम्पत्तिके देखनेसे जनित सुख रूपी बीजके द्वारा अपने हृदयरूषी क्यारीमें जो प्रीतिरूपी लता उत्पन्न हुई थी
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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