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________________ प्रथम लम्भ २४७ रानीके इस प्रश्नका उत्तर उदासीन भावसे देकर जब राजाने टालमटूल को तो वह मृगनयनी उनको चेष्टासे उनका भाव समझ गई । उनके हृदयमें दुःखका पूर हिलोरें लेने लगा और जिस प्रकार पहाड़के मध्यभागसे हस्तिनी नीचे गिर जाती है उसी प्रकार वह अपने आसनसे नीचे गिर कर जमीन पर लेटने लगी । उसकी आँखोंसे आँसू बहने लगे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो दुःखका प्रवाह हृदयके भीतर समा नहीं सका था इसलिए आँसुओंके बहाने बाहर निकलकर वहने लगा था। वह चेतनारहित हो गई थी। जिससे ऐसा जान पड़ता था कि आँसुओंके बहाने वाहर निकलने वाले दुःखके प्रवाहने उसकी चेतनाको निकाल कर बाहर खदेड़ दिया था । रानीकी यह दशा देख राजा भी संज्ञाहीन हो गया था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो राजाको चेतना अपनी रानीको चेतनाको खोजनेके लिए ही कहीं चली गई हो। तदनन्तर बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ राजा सत्यन्धरको जब किसी तरह चेतना आई तो उसने रानीको उठाया और शोकरूयो अपार सागरके बीच में डूबती तथा उतराती हुई रानी को जहाजके समान आवलम्बन देनेवाले निम्न प्रकार वचन कहना शुरू किया वह कहने लगा कि हे कमललोचने ! तू इस स्वप्नके दिखने मात्रसे मुझे मरा हुआ क्यों समझने लगी है ? जो मनुष्य किसी भले वृक्षकी रक्षा करना चाहते हैं वे उसे कभी जलाते नहीं हैं ॥५२॥ हे मृगनेत्रि, जिस प्रकार अग्निमें प्रवेश करनेसे घामका दुःख नष्ट नहीं होता उसी प्रकार शोक करनेसे दुःख शान्त नहीं होता ।।५३।। इसलिए हे विशाललोचने ! हे चन्द्रमुखि ! इस वातका निश्चय रक्खो कि जिस प्रकार सूर्य फैले हुए तुपारको नष्ट कर देता है और चन्द्रमा घोर अन्धकारको छिन्न-भिन्न कर देता है। उसी प्रकार धर्म ही विपत्तियोंको नष्ट करता है ॥५४|| इत्यादि शान्ति पूर्ण वचनोंसे उसने विजया रानीको सान्त्वना दी। तदनन्तर प्रतिबोधित रानके साथ पहलेके समान विषयसुखका उपभोग करते हुए राजा सत्यन्धरने कितने ही दिन व्यतीत किये ! तत्पश्चात् विषयसुखके पराधीन रहनेवाले राजाके लिए स्वप्नोंका वृत्तान्त बतलानेके लिए ही मानो रानीने गर्भ धारण किया। जिस प्रकार किसी महाकविकी भारती गम्भीर अर्थको धारण करती है, शरत्ऋतुके कमलोंसे सुशोभित सरसी जिस प्रकार राजहंसको धारण करती है, समुद्रकी वेला जिस प्रकार मणिको धारण करती है, पूर्वदिशा जिस प्रकार चन्द्रमण्डलको धारण करती है, पर्वतकी गुफा जिस प्रकार सिंहके बच्चेको धारण करती है, सुवर्णकी पिटारी जिस प्रकार रत्नको धारण करती है और समुद्रकी शीप जिस प्रकार मोतीको धारण करती है उसी प्रकार रानीने गर्भको धारण किया था। उस समय विजया रानीका मुख-कमल कुछ ही दिनोंमें शुक्लताको प्राप्त हो गया था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो गर्भ में स्थित बालकके यशसे ही शुक्लताको प्राप्त हो गया था। उसका शुक्ल मुख ठीक चन्द्रमाके समान जान पड़ता था ॥ ५५ ॥ रानीका उदर जैसा-जैसा बढ़ता जाता था वैसा-वैसा ही उसके दोनों स्तनोंका मुख काला पड़ता जाता था। साथ ही स्वप्नके फलका विचारकर पश्चात्ताप करनेवाले राजा सत्यन्धरका मुख भी काला पड़ता जाता था ।।५।। रानीके बढ़े हुए उदरको देखकर उसके स्तन कृष्णमुख हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि जो कठोर प्रकृतिके होते हैं वे मध्यस्थ व्यक्तिके भी अम्युदयको नहीं सह सकते हैं ॥ ५७ ॥ श्याममुख स्तनयुगलको धारण करनेवाली विजया रानी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो भ्रमरोंसे सुशोभित दो कुड्मलोंको धारण करनेवाली कमलिनी ही हो अथवा जिनके मुखमें कीचड़ लग रही है ऐसे दो हंसोंको धारण करनेवाली सरसी ही हो अथवा भ्रमरोंसे चुम्बित दो गुच्छोंको धारण करनेवाली लता ही हो ॥ ५८ ।। रानीके नाभिमण्डलने, भीतर स्थित बच्चेकी गम्भीरता देखकर ही मानो राजाके साथ साथ लज्जावश अपनी गम्भीरता (गहराई ) छोड़ दी थी॥ ५६ ।। रानीका मध्य
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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