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जीवन्धरचम्पूकाव्य चन्द्रमा, तुम्हारे नेत्रोंसे पराजित हरिणको अपनी गोदमें रखे हुए अस्ताचल रूपी दुर्गकी शरणमें गया था परन्तु वहाँ यह अभागा वारुणी-पश्चिम दिशा ( पक्षमें मदिरा) का सेवन कर बैठा इसलिए अब मन्द तेज होकर शीघ्र ही नीचे गिर जायगा ऐसा जान पड़ता है ।। ४४ ।। हे देवि ! इधर यह पूर्व दिशा रूपी स्त्री संन्ध्या रूपी लाल साड़ी पहिनकर नक्षत्र रूपी अक्षतोंसे सहित आकाश रूपी उत्तम पात्रमें सूर्य रूपी मणिमय दीपक और सूर्यके घोड़े रूप हरी हरी दुबाको सँजोकर तेरा बहुत भारी मङ्गलाचार कर रही है--तेरी आरती उतार रही है ॥ ४५ ॥ हे देवि ! यह भ्रमरोंकी पंक्ति तुम्हारे केशपाशका सौन्दर्य चुराने में बहुत चतुर थी। इसलिए रात्रिके समय राजाने (पक्षमें चन्द्रमाने) इसे शीघ्र ही कमलोंके बन्धनमें कैद कर दिया था। अब प्रातःकाल होनेपर इसे छोड़ा है इसलिए हर्षित होकर मनोहर शब्दोंके द्वारा तुम्हारी स्तुति कर रही है सो स्वीकृति करो ॥ ४६॥ इधर कमलकी परागसे जिसका समस्त शरीर धूसरित हो रहा है ऐसा वियोगके द्वारा खिन्न हुआ यह चकवा इस समय अपने पंख फैलाकर अपनी स्त्रीका आलिंगन कर रहा है और उसके मुँहमें अपनी चोंच देता हुआ बड़ा अच्छा मालूम होता है ॥४७॥ हे देवि ! जिस प्रकार हंसी बालूके पुञ्जको छोड़ती है और चन्द्रमाकी कला सफेद मेघकी पंक्तिको छोड़ देती है उसी प्रकार तू भी हंसतूलसे बनी शय्या को छोड़ ॥४८॥
यद्यपि वह रानी स्वप्न देखते ही जाग उठी थी पर शय्यासे नहीं उठी थी। उस समय वह बन्दी जनोंके पूर्वोक्त पद्यालापोंसे तथा माङ्गलिक वाजोंके शब्दोंसे उस प्रकार जाग उठी जिस प्रकार कि मेघमालाको गर्जनासे मयूरी जाग उठती है। उसने उठकर प्रातःकाल सम्बन्धी कार्य किये और तदनन्तर प्रातःकालिक क्रियाओंसे निवृत्त होकर बैठे हुए महाबुद्धिमान गुणवन्त अपने पति सत्यन्धर महाराजके पास जाकर स्वप्न सम्बन्धी समाचार सुनाया।
हे शत्रुओंको जीतनेवाले आर्यपुत्र ! जिस प्रकार आमोंके मौर कोयलको बोलने के लिए प्रेरित करते हैं उसी प्रकार आज मेरे द्वारा देखे गये तीन स्वप्न मुझे बोलनेके लिए अत्यन्त प्रेरित कर रहे हैं ।। ४६ ॥
हे इन्द्रके वैभवको जीतने वाले आर्यपुत्र ! आज मैंने रात्रिके पिछले पहरमें देखा है कि अशोकका एक वृक्ष खड़ा है उसे कुल्हाड़ी हाथमें लिये हुए एक पुरुष काटकर गिरा देता है। उसी समय उसमेंस मुकुटसे सुशोभित अशोकका एक छोटा पौधा निकलता है और उसके पास आठ मालाएँ लटक रही हैं। यह स्वप्नका समाचार सुनकर तथा उसके शुभ और अशुभ फलका विचार कर राजाके हृदयमें अपने नष्ट होनेकी शङ्का रूपी कील पड गई। वह कभी हर्ष में निमग्न होता था तो कभी शोक रसमें डूवता था । उसकी दशा ऐसी हो रही थी मानो वह मनमें चन्दन
और विष दोनोंके रसोंसे लिप्त हो रहा हो । अथवा उस हंसके समान उसकी दशा थी जिसके पंखमें एक ओर तो कमलिनीका कंटक लग रहा था और दूसरी ओर कमल-दलका सुखद स्पर्श उसे प्राप्त हो रहा था। वह राजा बहुत ही धैर्यवान् था । तथा उसकी बुद्धि चतुराईसे भरपूर थी। जिस प्रकार कोई हाथी अपने छोटे दाँत भीतर छिपा लेता है और दो बड़े दाँत बाहर निकाल देता है उसी प्रकार समुद्रके समान गम्भीर राजाने अशुभ फलवाले स्वप्नको अपने हृदयके मीतर छिपा लिया और शुभफल वाले दो स्वप्नोंका फल निम्न प्रकार कह दिया ।
उसने कहा कि हे देवि ! तुमने जो मुकुट महित अशोक वृक्ष देखा उसका फल यह है कि जिस प्रकार पूर्व दिशा सूर्यको प्राप्त करती है उसी प्रकार तुम कुलको प्रकाशित करनेके लिए रत्नदीपके समान ऐसे पुत्रको प्राप्त करोगी जो कि राजाओंका शिरोमणि होगा। इसके सिवाय उस अशोकके पास जो आठ मालाएँ देखी हैं वे यह बतला रही हैं कि उसके आठ स्त्रियाँ होगीं ॥५०॥ कानों तक लम्बे नेत्र धारण करने वाली रानीने पतिके वचन सुनकर कहा कि हे प्राणवल्लभ ! मेरा हृदय प्रथम स्वप्नका फल जानना चाहता है इस समय वही कहिये ॥५१॥