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________________ २४२ जीवन्धरचम्पूकाव्य उसके हृदयमें श्रेष्ठ, शान्त तथा उत्तम व्रतोंसे सम्पन्न चारित्र विद्यमान था (पक्ष में भगवान् आदिनाथ, शीतलनाथ और मुनिसुव्रतनाथ विद्यमान थे), उसका राज्य लक्ष्मीसे वर्धमान था-निरन्तर बढ़ता रहता था (पत्नमें अन्तिम तीर्थंकर था), उसका कुल अत्यन्त विमल-निर्दोष था (पक्षमें विमलनाथ तीर्थंकर था) और उसकी कीर्तिका समूह अनन्त-अन्तरहित था (पक्षमें अनन्तनाथ तीर्थकर था)। इस प्रकार समस्त विद्याओं के विनोदसे भरा हुआ वह राजा तीर्थंकरोंका प्रत्यक्ष करानेवालेके समान सदा जयवन्त रहता था ॥२३॥ जिसमें अनेक शत्रु डूब रहे हैं-कट कट कर मर रहें हैं ऐसे उस राजाके कर-किसलयमें धारण की हुई तलवारके जलसे जो छींटोंके समूह उछटे थे उन्हें लोग ताराओंका समूह कहते हैं यह मिथ्या है अर्थात् वे जलके ही छींटे हैं ताराओं के समूह नहीं हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो उनमें मकर, मीन और कर्क नामक जलजन्तु (पक्षमें इन नामोंवाली राशियाँ) कौन होते ? ॥२४॥ जब कभी उस राजाकी भौंह क्रोधसे टेढ़ी होती है तो शत्रु राजा अपनेको शरणहीन समझकर वनकी ओर भागते हैं । वहाँ वृक्षोंकी पङ्क्ति, वायुके आघातसे हिलनेवाले शाखारूप हाथोंसे तथा पक्षियोंकी बोलीरूप शब्दोंके द्वारा यह कहकर मना करती है कि यहाँ राजाके विरोधी लोगोंको प्रवेश नहीं करना चाहिए | जब विरोधी राजा वृक्षावलीको उल्लंघनकर आगे बढ़ने लगते हैं तब वह वृक्षावली राजाके अपराधके भयसे ही मानो आँधीसे काँपने लगती है और बड़े-बड़े काँटोंके द्वारा उन विरोधी राजाओंके बाल पकड़कर खींचती है ऐसी जान पड़ती है। जिनके शरीर वनवीथी रूपी मेघमालामें बिजलीके समान सुशोभित हो रहे थे ऐसी उस राजाके शत्रुओंकी स्त्रियाँ जब वनमें इधर-उधर भटकती रहती थीं तब उनके मुखोंको कमल समझकर हंसावली उसपर टूट पड़ती थी। जब वे उस हंसावलीको अपने हाथकी लाल-लाल अङ्गलियोंसे दूर हटानेका प्रयत्न करती थीं तब उनके हाथोंको पल्लव समझकर तोताओंके बच्चे खींचने लगते थे । जब वे दुःखी होकर हा हा शब्द करती हुई चिल्लाने लगती थीं तब उन्हें कोयल समझकर कौए उनके मस्तकपर चोंचकी टक्कर लगाने लगते थे। इस क्रियासे उनके शिरकी वेणी खुलकर फैल जाती थी तो उसे सर्प समझकर मयूर खींचने लगते थे । जब हताश हो लम्बी सांस भरने लगती थीं तो उसकी सुगन्धिमें लुभाये हुए मूर्ख भौंरे मदान्ध हो उनकी ओर झपट पड़ते थे और सामने नाकरूपी चम्पाको देखकर भी पीछे नहीं हटते थे। अत्यन्त स्थूल नितम्ब और भारी स्तनोंके भारसे उनके शरीर नीचेकी ओर झुक रहे थे, वे चाहती थीं कि विधाताने हम लोगोंके स्तनोंमें जो कठोरता दी है, काश, वह चरण-कमलों में कर देते तो अच्छा होता । इस प्रकार जब वे भागनेका प्रयत्न करती थीं तव उनके चरणयुगलके नखोंकी कान्तिको चाँदनी समझकर चकोर पक्षी आड़े आ जाते थे और मिलकर उनके मार्गको रोक लेते थे। तदनन्तर जब वे पृथिवी पर गिरकर लोटने लगती थीं तब उनके सुवर्णके समान पीले-पीले स्तनोंके युगलको पके हुए तालफल समझकर वानर खींचने लगते थे । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि राजाके विरोधी लोगोंको वन भी शरण नहीं देता था। इसके सिवाय एक बात और थी वह यह कि चारों दिशाओंमें जो समुद्र थे वे सत्यन्धर राजाके प्रतापरूपी सूर्यके द्वारा क्षणभरमें सुखा दिये गये थे । तदनन्तर शत्रु राजाओंकी स्त्रियोंके आँसुओंके प्रवाहसे इतने भर गये थे कि तटको उल्लंघन कर बहने लगे ॥२५॥ राजा सत्यन्धरके शत्रुओंकी स्त्रियाँ जब कभी वनके बीच में बैठी होती थीं तब वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो वनको मोहित करनेके लिए उत्पन्न हुई मालतीकी लताएँ ही हैं । उसी समय अपने पिछले संस्कारोंके कारण उनके बच्चे हठ पकड़ जाते थे कि हमारा खेलनेका राजहंस लाओ । बच्चोंकी हठ और विवशताके कारण उनकी आँखोंसे आँसुओंका प्रवाह निकल पड़ता था
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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