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प्रथम लम्भ
समूहमें ही थी अन्यत्र पगग अर्थात् बहुत भारी अपराध नहीं था । नीचसेवना अर्थात् ढालू जमीनकी सेवा नदियों में ही थी। अन्य मनुष्यों में नीचजनोंकी सेवा नहीं थी। आनेवत्व अर्थात् तद् तद् ऋतुओंके परिणमनसे सहित होना फलोंसे लदी हुई इनको पंक्तियों में ही था वहाँके मनुष्यों में आर्तवत्व अर्थात दुःखसे सहितपना नहीं था। करपीड़न अर्थात् हाथके द्वारा मर्दित होना स्त्रियोंके स्तन-कलशामें ही था, अन्य मनुप्योंमें करपीडन अर्थात भारी टेक्सके कारण कष्ट नहीं था। विविधार्थचिन्ता अर्थात अनेक पदार्थोंका विचार व्याख्यानकी कलाओंमें ही था, अन्य मनुष्योंमें विविध पदार्थोकी चिन्ता-फिक्र नहीं थी सबके लिये सब पदार्थ सुलभ थे। नास्तिवाद अर्थान नहीं है ऐसा कथन स्त्रियों की कमर में ही होता था, अन्य मनुप्यों में नास्तिवाद नहीं था-सव आस्तिक थे। गुणभङ्ग अर्थात धनुपकी डोरीका भङ्ग युद्धोंमें ही होता था, अन्य मनुष्यों में गुणभङ्ग अर्थात् दया. दाक्षिण्य आदि गुणोंका भङ्ग-विनाश नहीं होता था। खलसङ्ग अर्थात् खलिहानोंका संसर्ग धानोंके समृहमें हो था-धानके समूह ही चावल निकालनेके लिए खलिहानोंमें इकट्ठे किये जाते थे, वहाँ अन्य मनुष्यों में खलसंग अर्थात् दुर्जनोंकी संगति नहीं थी। अपाङ्गता अर्थात् कटाक्षोंका चलना मृगनयनी स्त्रियोंके नेत्रोंकी चञ्चल चाल में ही था, अन्य मनुष्यों में अपाङ्गता अर्थात विकलाङ्गता नहीं थी-सव सम्पूर्ण अङ्गोंके धारक थे। मलिनमुखता अर्थात् अग्रभागका काला होना स्त्रियोंके स्तन रूप कुडमलोंमें ही था, अन्य मनुष्यों में मलिनमुखता अर्थान् कृष्णमुखता-नीचता नहीं थी। आगमकुटिलता अर्थात् टेढ़ी चाल साँपों में ही थी, अन्य मनुष्योंमें आगमकुटिलता अर्थात् शास्त्रके विपयमें कुटिल मनोवृत्ति नहीं थी। अजिनानुराग अर्थात् मृगचर्मका स्नेह महादेवमें ही था, अन्य मनुष्योंमें जिनेन्द्रसे इतर देवोंमें स्नेह नहीं था। सोपसर्गता अर्थात् प्र परा आदि उपसाँस सहित होना भू आदि धातुओंमें ही था, अन्य मनुष्योंमें सोपसर्गता अर्थान् आपत्तियोंसे सहित होना नहीं था । दरिद्रभाव अर्थात् कृशपना स्त्रियोंके उदर में ही था अन्य मनुष्योंमें दरिद्रभाव अर्थात् निर्धनता नहीं थी। द्विजिह्वता अर्थात् दो जिह्वाओं का होना सापोंमें ही था, अन्य मनुष्योंमें द्विजिह्वता अर्थात् चुगलखोरी नहीं थी। पलाशिता अर्थात् पत्तोंका सद्भाव बनके वृक्षों में ही था, अन्य मनुष्योंमें पलाशिता अर्थात् मांसका भोजन नहीं था। अधरराग अर्थात ओठोंकी ललाई स्त्रियोंके मुख-कमलोंमें ही थी, अन्य मनुष्योंमें अधरराग अर्थात् नीच जनों के साथ स्नेह नहीं था । तीक्ष्णता अर्थान् शीव्रतासे किसो वातको समझ सकना विद्वानोंकी बुद्धियोंमें ही था । अन्य मनुष्योंमें तीक्ष्णता अर्थात् क्रूरता नहीं थी। कठिनता अर्थात् कड़ापन स्त्रियोंके स्तनोंमें ही था, अन्य मनुष्यों में कठिनता अर्थात् निर्दयता नहीं थी। नीचता अर्थात् गहराई नाभिके गर्तों में ही थी, अन्य मनुष्योंमें नीचता अर्थान क्षुद्रता नहीं थी। विरोध अर्थात् पक्षियोंका रोका जाना पिंजरों में ही था, अन्य मनुष्यों में विरोध अर्थात् वैर नहीं था । अपवादिता अर्थात् पकार वकार आदि ओष्ठस्थानीय अक्षरोंका अभाव निरोष्ठ्य काव्योंमें ही था, अन्य मनुष्योंमें अपवादिता अर्थात् निन्दा करनेकी आदत नहीं थी। घनयोगभङ्ग अर्थात् मेघोंके संसर्गका अभाव वर्षाऋतुकी समाप्तिमें ही था, अन्य मनुष्योंमें धनधोगभङ्ग अर्थात् गाड़ संसर्गका अभाव नहीं था-सभीके सभीके साथ गाढ़ सम्बन्ध थे। कलिकोपचार अर्थात् फूलोंकी कलियोंका उपचार कामजन्य संतापमें ही होता था, अन्य मनुष्योंमें कलह और क्रोधका संचार नहीं होता था। कलहंसकुल अर्थात् कलहंस पक्षियोंका समुदाय क्रीड़ा-सरोवरोंमें ही था अन्य मनुष्यों में कलहका सद्भाव नहीं था।
राजा सत्यन्धरका मुख चन्द्रमाके समान कान्तिवाला था (पक्षमें चन्द्रप्रभ भगवान था), उसकी दोनों भुजाएँ अजित थी-किसीके द्वारा जीती नहीं जा सकी थीं (पक्षमें अजितनाथ तीर्थकर थीं), उसका शरीर सुपार्श्व था-अच्छी पसलियोंसे युक्त था (पक्षमें सुपार्श्वनाथ तीर्थंकर था), उसका कार्य स्वाधीन धर्म था-धर्मानुकूल था (पक्षमें धर्मनाथ भगवानसे सहित था)