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________________ जीवामिगमसूत्र भवन ' भगवानाह- जहन्नेणं अंतो मुहुत्तं जपन्येन अंतोर्मुहुत्तम् उक्कोसेणं तरुकालो उन नत्काल बनन्यनिकालपरिमितमन्तरं भवति । एवं सव्वेसिजीव अहेसत्तमा एवं गई पां यावदर मममी रत्नप्रभापृथिवीनारकनपुंसकवदेव सर्वेषां शर्कराप्रमादित आरम्याध सम्मो नाकनपुंसकपर्यन्तानामन्तरं वक्तव्यम् । 'तिरिक्ख जोणिय णपुंसगस्स' निर्यगयोनिक नपुंसकम्य 'जहन्नेणं अन्तोमुहत्तं' जघन्येनान्तर्मुहूर्तमन्तरं भवति 'उक्कोसेणं सागरोवमसय प्रदमाग उन्कर्पग सागगेपमशनपृथक्त्वं सातिरेकमन्तरं भवति सातिरेकत्व च तदुपरि कतिपयनपुरक माईक्वेदितव्यम् नत परं नपुंसकनामकर्मोदयाभावतो नियमतः स्त्रीपुरुषभावगमनात् नासायात कहलाती है क्योंकि वनस्पति के भव से निकलकर जव अन्यभवो में जीव घूमता है, वहां उनका पूर्वोक्त असंख्यात उसर्पिणी अवसर्पिणीकाल तक अवस्थान होता है, उसके बाद संमागे जीव के नियम से फिर वनस्पति काय में उत्पत्ति होती है । "सेसाणं वेइंदियादीणं जाब सहयगण' टमी तरह गंप-दीन्द्रियनपुंसकों का यावत् तेन्द्रियनपुंसको का चौहन्द्रिय नयुमोका पञ्चेन्द्रिय निर्य-योनिक जलचर नपुंसको का स्थलचर नपुंसकोका, खेचर नपुंसको का अन्तर "जहन्नगं अंतोमुहुनं उक्कोसेणं वणस्सडकालो" जघन्य से एक अन्तर्मुहर्त का है और उप वनम्पनिकाल का प्रमाण है. "मणुस्स णपुंसगस्स" सामान्य से मनुष्यनपुंसक का अन्तर "खेत पड़च" क्षेत्र की अपेक्षा लेकर "जहन्नेणं" जघन्य से तो "अंतो मुहत्तं एक अन्तर्गदर्न का है नथा "उक्कोमेणं वणसहकालो" उत्कृष्ट से वनस्पपितकाल तक का है "धम्पनरणं पहुच्च जहन्नणं एक समयं उक्कोसेणं अणंत कालं" चरित्र धर्म की अपेक्षा लेकर मनुन्य नपुंसक का जन्तर जघन्य में एक समय का और उत्कृष्ट से अनन्तकाल का है. "नाव पोगरपग्यिदेमूणं" इस अनन्तकाल में अन्त उत्सर्पिणी काल और अनन्त अशपिंगी काल समाप हो जाता है। तथा क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोक समाप्त हो जाते है। "पुटवी आउ नेउवाउपण जाणेण्णं संतोमुहुत्त उमोसेणं घणस्सइकालोग'वायि ન નું પાણિક નપુંશકોનું તેજ કાયિક નપુંસનું અને વાયુ કાયિક નપુંસકનું અંતર यी , मनमुनिनु छ. म थी वनस्पति प्रमाणुनुं मत छ "वणस्सरकापाज परोपी नोमुटु" पतिय नभानु मत२ धन्यथा से मतभुत नु , न 'उकोमेण भोज फालं. जाव असंन्जलोया" थी मम यातनु અતર થાવન સંધ્યાત લેકનું છે અસંખ્યાન કાળની અપેક્ષાથી અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અને આવરી દે છે અને ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી અસંખ્યાત લોક પ્રમાણ હોય છે. ઉત્સજિન ન વસનિ અાંખ્યાન પનું આ પ્રમાનું સમજવું જેમકે–અસંખ્યાત હે જગ પ્ર માથી પ્રતિસમય ટ એક પ્રદેશના અપકાર કરવાથી બહાર કહાડવાથી tતા હ. પ્રદેશના રામાપ્ત થવામાં જેટલી ઉસપિણી અને અવસર્પિણી વિતી જાય
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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