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________________ ५५२ जीवाभिगमसूत्रे तीति । 'एवं जलयरतिरिक्ख चउप्पयथलयर उरपरिसप्प महोगाणवि' एवम् पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकनपुंसकवदेव जलचरतिर्यक चतुप्पदस्थलचरोरःपरिसर्प भुजपरिसर्प महोरगाणामपि जघन्येनान्तर्मुहूर्तप्रमाणा उत्कर्पण पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाणा कायस्थितिर्भवतीति ज्ञातव्यम् 'मणुस्स णपुंसगस्त णं 'भंते' मनुप्यनपुंसकस्य खलु भदन्त मणुस्सणपुंसएत्ति कालओ केवचिरं होई'मनुप्यनपुसक इति कालत. कियच्चिर भवति ? इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम । 'खत्तं पडुच्च जहन्नेणं अन्तो मुहुत्त क्षेत्रं प्रतीत्य क्षेत्राश्रयणेन जघन्येनान्तमुहर्तम् 'उक्कोसेणं पुन्यकोडिपुहुत्त' उत्कर्पण पूर्वकोटिपृथक्त्वं द्विपूर्वकोटित आरभ्य नव पूर्वकोंटिपर्यन्तमित्यर्थ. 'धम्मचरणं पइच्च' धर्मचरण प्रतीत्य आश्रित्य तु जहन्नेणं एक्कं समयं पुरुष वेट में अथवा किसी विलक्षण भव मे सक्रमण हो जाता है । “एवं जलयरतिरिक्ख चटप्पदथलयरउरपरिसप्पभुयपरिसप्प महोरगाणवि" पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक नपुंसक जीव की तरह ही जलचर तिर्यक् चतुष्पदस्थलचर उरःपरिसर्पभुज परिसर्प, और महोरग, इन नपुंसकों की भी कायस्थिति जघन्य से एक अन्तमुहर्त की है और उत्कृष्ट से पूर्व कोटि पृथक्त्व की है । "मणुस्स णपुंसगस्स णं भंते ! मणुस्स णपुंसएत्ति कालओ केवचिरं होइ" हे भदन्त । मनुष्य नपुसक लगातार मनुष्य नपुंसक अवस्था में कितने काल तक रहता है-अर्थात् मनुष्य नपुसक की कायस्थिति का कालमान कितने काल का है ? उत्तर मे प्रभु कहते है-- "गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतो मुहुत्ते" हे गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा करके मनुष्य नपुंसक की कायस्थिति का कालमान कम से कम तो एक अन्तर्मुहूर्त का है और—"उक्कोसेणं पुच्चकोडि पुहृत्तं" उत्कृष्ट से पूर्वकोटि पृथक्त्व का है-दो पूर्व कोटि से लेकर नौ पूर्व कोटि तक का है "धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्क समयं उक्कोसेणंटेसूणा पुचकोडी" ____ "वं जलयर तिरिक्ख चउप्पयथलयर उरपरिसप्प भुयारिसप्प महोरगाणवि" पाय ઇ દિયવાળા તિર્યનિક નપુંસકજીવની જેમ જ જલચર તિર્થો પગા, સ્થલચર–ઉર પરિસર્ષ ભુજપરિસર્પ, અને મહારગ આ નપુંસની કાયસ્થિતિ પણ જઘન્યથી એક અંતર્મદની છે, मने थी पूर्व र पृथयनी छे. "मणुस्सणपुंसगस्स णं भंते ! मणुस्स णपुंसएत्ति कालयो केवच्चिरं होई" लगवन् भनुष्य नपुस साग मनुष्य नथुस४५मा टस સુધી રહે છે? અર્થાત મનુષ્ય નપુસકની કાયસ્થિતિ ને કાળમાન કેટલાકાળ હોય છે ? २मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमवामीन छे -"गोयमा ! खेत्त पढच्च जहण्णेणं अंतो. महत्त' 8 गौतम ! क्षेत्रनी अपेक्षाथी मनुष्य नसहनी आयस्थितिन। मान माछामा माछी से मतभुत ने। छ, भने "उक्कोसेण पुचकोडी पुहुत्त" Stथी पूर्व पृथत्वना छ, भेटले में पूर्व दियी साधने नवोटि सुधीना छे "धम्मचरणं पडुच्च जह न्नेणं पक्कं समय उक्कोसेणं देसूणा पुव्यकोडी" तथा यास्त्रियभनी अपेक्षाथी भनुष्य नસકની કાયસ્થિતિનું પ્રમાણ જઘન્યથી એક સમયનું છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક ઓછું પૂર્વકેટિ
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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