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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्रति. १ स्थलचरपरिसर्पसमूच्छिम पं. ति. जीवनिरूपणम् २८७ भवन्तीति । अत्रावधिविभङ्गौ च सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिमेदेन ज्ञातव्यौ सम्यग्दृष्टेरवधिः, मिथ्यादृष्टेश्च विभङ्ग इति विपरीतोऽवघिरेव विभङ्गः प्रोच्यते सम्यग् दृष्टे निं मिथ्यादृष्टेविपर्यासः" इति ॥१५॥ योगद्वारे-'जोगे तिविहे' योगः-काययोगो वचनयोगो मनोयोगश्चेति त्रिविधोऽपि जलचराणां योगो भवतीति योगद्वारम् ।१६॥ उपयोगद्वारे-'उवजोगे दुविहे' उपयोगो द्विविधोऽपि साकारोपयोगश्च अनाकारोपयोगश्चेति उपयोगद्वारम् । ॥१७॥ आहारद्वारे-'आहारो छद्दिसिं' आहारः षदिशि जलचरजीवानां लोकमध्ये विद्यमानत्वेन षदिगम्य आगतान् आहारपुद्गलान् आहरन्तीति आहारद्वारम् ॥१८॥ उपपातद्वारे-'उववाओ नेरइएहितो जाव अहे सत्तमा' जलचरजीवानामुपपातो नैरयिकेभ्यो यावदध सप्तमी पृथिवी वर्त्तते तावत्पर्यन्तेभ्यो नैरयिकेभ्यो भवति । अयं भावः-गर्भव्युयहां जो सभ्यग्दृष्टि होते हैं उनको अवधिज्ञान होता है और जो मिथ्यादृष्टि होते हैं उनको विभंग ज्ञान होता है जैसे-कहा है-सग्दृष्टे ज्ञान मिथ्यादृष्टे विपर्यास:"-योगद्वार में 'जोगे तिविहे" गर्भज जलचर तिर्यञ्चों को मनोयोग, वचनयोग और काययोग यह तीनों प्रकार का योग होता है। उपयोगद्वार में-'उवजोगे दुविहे" दोनों प्रकार का उपयोग इनको होता है-साकार उपयोग भी होता है और अनाकार उपयोग भी होता है। आहार द्वार में-"आहारो छरिसिं, इनका आहार छह दिशाओं से आगत पुद्गलों का होता है। __ क्योंकि गर्भन जलचर जीव लोक के मध्य में ही विद्यमान होते हैं इसलिये वे छहो दिशाओं में से आगत पुद्गलों का आहार करते हैं। उपपात द्वार में (उत्पन्न होना) पहली नरक से लेकर सातवीं नरक तक से उत्पन्न होते हैं, "उववाओ नेरइएहितो जाव ___ अहे सत्तमाए" जलचर जीवों का उपपात नैरयिको से लेकर यावत् सातवीं पृथिवी तक અજ્ઞાનવાળા હોય છે, અને કેટલાક મતિ અજ્ઞાન, છૂતઅજ્ઞાન અને વિભગ જ્ઞાન એમ ત્રણ પ્રકારના અજ્ઞાનવાળા હોય છે, તેઓને અવધિજ્ઞાન હોય છે. અને જેઓ મિથ્યાદષ્ટિવાળા हाय छ, तमान विज्ञान डाय छे घुछ ४-"सम्यरष्टेनि मिथ्यादृष्टेविपर्यासः" योगद्वारभा-"जोगे तिविहे" or or य२ तिययन मनायोग, क्यनयो मन अययाम मेम र प्रारना यास डाय छे. पोवारमा "उवजोगे दुविहे" त्याने બન્ને પ્રકારના ઉપગ હોય છે. એટલે કે–સાકાર ઉપગ પણ હોય છે, અને અનાકાર ઉપયોગ પણ હોય છે माहवारमां-"आहारो छदिसिं" तमान माहार छये हशाम्यामांथा भावना પુદ્ગલેને હોય છે. કેમકે-ગર્ભજ જલચર જીવ લેકની મધ્યમાં જ વિદ્યમાન છે. તેથી તેઓ ने शिमामाथी सावमा पुगखाना माहा२ ४२ छ. 6५पाताभां-"उपवाओ नेरइए हितो जाव अहेसत्तमाप" सय ७वानी लात-त्पत्ति नैयिाथी वन मेट પહેલા નરકથી લઈને યાવત સાતમાં નરક સુધા કહેલ છે.
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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