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[ जिनवरस्य नयचक्रम्
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यहाँ एकदेशशुद्धनिश्चयनय ने भावना की अपेक्षा से एकदेशशुद्धि से युक्त आत्मा को केवलज्ञानादि भावों का कर्त्ता अर्थात् पूर्णशुद्ध कहा है । अतः यह भी जान लेना चाहिए कि यह नय भावना की अपेक्षा एकदेशशुद्धता में पूर्णशुद्धता का कथन करता है ?
(२) प्रश्न :- एकदेशशुद्धता के आधार पर सम्पूर्ण द्रव्य को शुद्ध कहना तो उचित प्रतीत नहीं होता ?
उत्तर :- इसमें क्या अनुचित है ? प्रत्येक नय अपनी दृष्टि से जो भी कथन करता है, सम्पूर्ण द्रव्य के बारे में ही करता है । जब परमशुद्ध निश्चयनय पर्याय में शुद्धता होने पर भी द्रव्य को शुद्ध कहता है; और इसीप्रकार जब द्रव्यांश में शुद्धता के रहते हुए भी पर्याय की अशुद्धता के आधार पर अशुद्धनिश्चयनय सम्पूर्ण द्रव्य को ही अशुद्ध कहता है; तब एकदेशशुद्ध निश्चयनय भी एकदेशशुद्धि के आधार पर द्रव्य को शुद्ध कहे तो इसमें क्या अनुचित है ?
(३) प्रश्न :- इसप्रकार तो एकदेश-अशुद्धता के आधार पर सम्पूर्ण द्रव्य को अशुद्ध भी कहा जा सकता है ?
उत्तर :- क्यों नहीं ? अवश्य कहा जा सकता है । कहा क्या जा सकता है, कहा ही जाता है । अशुद्धनिश्चयनय द्रव्य को अशुद्ध कहता ही है । ( ४ ) प्रश्न :- अशुद्धनिश्चयनय नहीं, एकदेश - अशुद्धनिश्चयनय कहो न ?
उत्तर :- एकदेश-प्रशुद्धनिश्चयनय भी कह सकते है, पर 'एकदेशअशुद्धनिश्चयनय' नामक किसी नय का कथन आगम में प्राप्त नहीं होता । उसके विषय को अशुद्धनिश्चयनय में ही गर्भित कर लिया गया है । प्राप मानना चाहें तो मान लें ।
(५) प्रश्न :- क्या कहा ? हम मानना चाहें तो मान लें । जब आगम में नहीं मिलता है तो हम क्यों मान लें ? तथा जब आप हमें मान लेने की अनुमति देते हैं, तो फिर ग्रागम में क्यों नहीं है ?
उत्तर :- आगम में उसके पृथक् उल्लेख की आवश्यकता नहीं समझी, सो नहीं लिखा । आप आवश्यकता समझते हों तो मानलें, कोई आपत्ति नहीं है ।
इस सम्बन्ध में क्षुल्लक श्री जिनेन्द्र वर्णी के विचार दृष्टव्य हैं :"आगम में क्योंकि जीवों को ऊँचे उठाने की भावना प्रमुख है, अतः यहाँ एकदेश-शुद्धनिश्चयनय का कथन तो आ जाता है; पर एकदेश - अशुद्ध