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[ जिनवरस्य नयचक्रम् जीव में कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले जितने भाव हैं, वे जीव के भावप्राण होते हैं - ऐसा अशुद्धनिश्चयनय से जानना चाहिए।"
(२) "प्रात्मा हि अशुद्धनिश्चयनयेन सकलमोहरागद्वेषादि भावकर्मणां कर्ता मोक्ता च ।'
अशुद्धनिश्चयनय से यह आत्मा सम्पूर्ण मोह-राग-द्वेषादिरूप भावकर्मों का कर्ता और भोक्ता होता है।"
(३) "तदेवाशुद्धनिश्चयनयेन सोपाधिस्फटिकवत् समस्तरागादि विकल्पोपाधिसहितम् ।।
__ वही आत्मा अशुद्धनिश्चयनय से सोपाधिक स्फटिक की भांति समस्तरागादिविकल्पों की उपाधि से सहित है।"
(४) "अशुद्धनिश्चयनयेन क्षायोपशमिकोदयिकभावप्राणर्जीवति ।'
अशुद्धनिश्चयनय से जीव क्षायोपशमिक व औदयिक भावप्राणों से जीता है।"
निश्चयनय के भेद-प्रभेदों की विषयवस्तु एव कथनशैली स्पष्ट करने के लिए जो कतिपय उदाहरण - शास्त्रीय-उद्धरण यहाँ प्रस्तुत किये गए हैं, उनका बारीकी से अध्ययन करने पर यद्यपि बहुत कुछ स्पष्ट हो जाएगा; तथापि पूर्ण स्पष्टता तो जिनागम के गहरे अध्ययन, मनन एवं चिन्तन से ही संभव है।
उक्त उद्धरणों मे यद्यपि अधिकांश प्रयोगो को समेटने का प्रयास किया गया है, तथापि इसप्रकार का दावा किया जाना संभव नहीं है कि सभीप्रकार के प्रयोग उपस्थित कर दिये गए है। जिनागम में और भी अनेक प्रकार के प्रयोग प्राप्त होना संभव है, क्योंकि जिनागम अगाध है, उसका पार पाना सहज संभव नहीं है।
' नियमसार, गाथा १८ की टीका २ प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति का परिशिष्ट ३ पंचास्तिकाय, गाथा २७ की जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति टीका