________________
५२ ]
[ जिनवरस्य नयचक्रम भी कथंचित् प्रयोजनभूत है। फिर भी शुद्धात्मा की प्राप्ति का कारण न होने से अध्यात्म में उसे अप्रयोजनभूत ही कहा जाता है।
यदि बिना पेड़ या छिलके के जगत में मींगी की प्राप्ति संभव होती तो पेड़ और छिलके को व्यवहार से भी बादाम नहीं कहा जाता। पेड़ और छिलके को व्यवहार से बादाम कहे जाने के कारण यदि वैद्यजी के यह बताए जाने पर कि ताकत के लिए बादाम का हलवा खाना चाहिए, कोई छिलके या पेड़ का हलवा खाने की बात सोचे तो मूर्ख ही माना जाएगा। जगत में ऐसी मूर्खता कोई न करे, इसलिए व्यवहार के कथन के प्रति सावधान करना भी आवश्यक है, उसका निषेध करना भी मावश्यक है।
उसीप्रकार व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन संभव होता तो व्यवहार को कथंचित् भूतार्थ भी नहीं कहा जाता, उसे जिनवाणी में स्थान भी प्राप्त नहीं होता; तथा यदि शरीरादि के संयोगवाले जीवों का कथन किये बिना ही इस अनादिकालीन अज्ञानी को आत्मा समझाया जा सकता होता तो फिर असमानजातीय द्रव्य पर्यायवाले जीव को जीव कहते ही नहीं।
शरीरादि के संयोगवाले संसारीजीव को भी व्यवहार से जीव कहे जाने के कारण और सद्गुरु के यह कहने पर कि यदि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करना है तो आत्मा का अनुभव करो- कोई रागी-द्वेषी मनुष्यादिरूप आत्मा का अनुभव करने से सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति मानने लगे तो मूर्ख ही माना जाएगा। तथा जगत में कोई ऐसी मूर्खता न करे- इसके लिए व्यवहार कथन को अभूतार्थ कहकर उसका निषेध भी आवश्यक है।
यही कारण रहा है कि निश्चयनय व्यवहारनय का निषेधक है. उसे प्रभूतार्थ कहकर उसका निषेध करता है।
समयसार की १४वीं गाथा की टीका में प्राचार्य अमृतचन्द्रजी ने पांच उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया है कि पर्यायस्वभावादि के समीप जाकर देखने पर व्यवहारनय के विषयभूत बदस्पृष्टादि भाव भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; पर निश्चयनय के विषयभूत द्रव्यस्वभाव के समीप जाकर देखने पर वे अभूतार्थ हैं, प्रसत्यार्थ हैं।
बादाम की मींगी जब अकेली होती है तो सवा-सौ रुपया किलो बिकती है और जब छिलके भी साथ होते हैं तो वह पच्चीस-तीस रुपये किलो में भी मुश्किल से विकती है । इसप्रकार छिलके की संगति में उसकी कीमत घट जाती है, और एकाकीपने में बढ़ जाती है। तथा छिलका मींगी के साथ रहने पर पच्चीस-तीस रुपया किलो बिक जाता है, पर यदि वह