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[ जिनवरस्य नयचक्रम् (निश्चय) का प्रतिपादन कैसे कर सकता है ? अर्थात् अभूतार्थ व्यवहार द्वारा प्रतिपादित निश्चय भूतार्थ कैसे हो सकता है ?
दूसरे जब व्यवहारनय निश्चयनय का प्रतिपादन करता है तो फिर निश्चयनय उसका निषेध क्यों करता है ? अपने प्रतिपादक का निषेध करना कहाँ तक उचित है? निश्चय के प्रतिपादन के लिए पहले व्यवहार को स्थापित करें और अपना काम हो जाने पर उसे असत्यार्थ कहकर निषेध कर दें-यह कुछ ठीक नहीं लगता। यदि वह असत्यार्थ है तो उसकी स्थापना क्यों ? और यदि सत्यार्थ है तो फिर उसका निषेध क्यों ?
ये कुछ प्रश्न हैं, शंकाएं हैं, जिनका उत्तर जगत चाहता है। जब तक ये प्रश्न अनुत्तरित रहेंगे, इनका समुचित समाधान जगत को प्राप्त नहीं होगा, तबतक गुत्थी सुलझनेवाली नहीं है।
इन प्रश्नों के समुचित उत्तर का प्रभाव भी निश्चय-व्यवहार संबंधी वर्तमान द्वन्द्व का एक कारण है। इसलिए यहाँ इस विषय को विस्तार से सोदाहरण स्पष्ट करने का प्रयास किया जाना अपेक्षित है।
बादाम के पेड़ को भी बादाम कहते हैं, बादाम की मींगी भी बादाम कही जाती है, तथा छिलके सहित मींगी को तो बादाम कहा ही जाता है ।
इसमें जो बादाम हमारे लिए उपयोगी है, वह तो वस्तुतः मांगी ही है। हमारी दृष्टि में तो वही महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि हमारा प्रयोजन तो उससे ही सधता है। बादाम का छिलका व बादाम का पेड़ हमारे लिए साक्षात् किसी काम के नहीं। बादाम की मींगी प्रयोजनभूत होने से हमारे लिए भूतार्थ है और छिलका और पेड़ अप्रयोजनभूत होने से अर्थात् साक्षात् प्रयोजनभूत न होने से अभूतार्थ हैं ।
उसीप्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति के लिए शुद्धात्मा का अनुभव करना हमारा मूल प्रयोजन है, प्रतः शुद्धात्मा हमारे लिए प्रयोजनभूत हुआ। इसीलिए शुद्धात्मा को विषय करनेवाला निश्चयनय भूतार्थ है । संयोग व संयोगीभावादि के अनुभव से सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति का प्रयोजन सिद्ध न होने से वे अप्रयोजनभूत ठहरे। इसीकारण उन्हें विषय बनानेवाला व्यवहारनय भी प्रभूतार्थ कहा गया है ।
_ 'भूतार्थ को निश्चय और अभूतार्थ को व्यवहार कहते हैं - इसके अनुसार मींगी निश्चय-बादाम हुई तथा छिलका और पेड़ व्यवहार-बादाम