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निश्चय पौर व्यवहार ] निषेध में है। उसका प्रयोग भी साबुन की भांति निषेध के लिए ही होता है।
जिसप्रकार साबुन लगाए बिना कपड़ा साफ नहीं होता और साबुन लगी रहने पर भी कपड़ा साफ नहीं होता; साबुन लगाकर धोने से कपड़ा साफ होता है। साबुन लगाया ही धोने के लिए जाता है, उसकी सार्थकता ही लगाकर धो डालने में है। यह कोई नहीं कहता कि जब साबुन ने प्रापके कपड़े को साफ कर दिया तो अब उसे भी क्यों निकालते हो?
उसीप्रकार व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन नहीं होता और व्यवहार के निषेध बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं होती। निश्चय के प्रतिपादन के लिए व्यवहार का प्रयोग अपेक्षित है और निश्चय की प्राप्ति के लिए व्यवहार का निषेध आवश्यक है। यदि व्यवहार का प्रयोग नहीं करेंगे तो वस्तु हमारी समझ में नहीं प्रावेगी, यदि व्यवहार का निषेध नहीं करेंगे तो वस्तु प्राप्त नहीं होगी।
व्यवहार का प्रयोग भी जिनवाणी में प्रयोजन से ही किया गया है और निषेध भी प्रयोजन से ही किया गया है। जिनवाणी में बिना प्रयोजन एक शब्द का भी प्रयोग नहीं होता। लोक में भी बिना प्रयोजन कौन क्या करता है ? कहा भी है :
"प्रयोजनमनुदिश्य मंदोऽपि न प्रवर्तते । प्रयोजन के बिना तो मन्द से मन्द बुद्धि भी प्रवृत्ति नहीं करता, फिर बुद्धिमान लोग तो करेंगे ही क्यों ?"
समस्त जिनवाणी ही एक आत्मप्राप्ति के उद्देश्य से लिखी गई है। इसी उद्देश्य से निश्चय और व्यवहार में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक एवं व्यवहार और निश्चय में निषेध्य-निषेधक सम्बन्ध माना गया है।
यद्यपि निश्चय और व्यवहार का स्वरूप परस्पर विरोध लिए-सा है तथापि निश्चयरूप प्रभेद को भेद करके तथा असंयोगी को संयोग द्वारा प्रतिपादन करनेवाला व्यवहार जगत को निश्चय का विरोधी-सा नहीं लगता, क्योंकि वह निश्चय का प्रतिपादन करता है न? किन्तु जब निश्चय अपने ही प्रतिपादक व्यवहार का निदयता से निषेध करता है तो जगत को खटकता है, क्योंकि व्यवहार का निश्चय-प्रतिपादकत्व और अभूतार्थत्वये दोनों एकसाथ जगत के गले मासानी से नहीं उतरते ।
जब व्यवहार निश्चय अर्थात् भूतार्थ का प्रतिपादक है तो फिर स्वयं मभतार्थ कैसे हो सकता है ? यदि स्वयं प्रभतार्थ है तो वह भताथ