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[ जिनवरस्य नयचक्रम् यदि आप इसप्रकार के कथनों से आश्चर्यचकित होंगे तो फिर अध्यात्म जगत में आपको ऐसे अनेकों आश्चर्यों का सामना करना होगा। कहीं प्रात्मा को सातवाँ द्रव्य लिखा मिलेगा तो कहीं दशवाँ पदार्थ । कहीं पूण्य और पाप दोनों एक' अथवा पुण्य को भी पाप बताया गया होगा तो कहीं केवलज्ञानादि क्षायिकभावों को परद्रव्य कहकर हेय बताया गया होगा।
____ इसका तात्पर्य यह नहीं समझना कि आध्यात्मिक कथन ऊटपटांग होते हैं । वे ऊटपटांग तो नहीं, पर अटपटे अवश्य होते हैं । वे कथन किसी विशिष्ट प्रयोजन से किये गये कथन होते हैं, उनके माध्यम से ज्ञानीजन कोई विशिष्ट बात कहना चाहते हैं। हमें उक्त कथनों की गहराई में जाने का प्रयत्न करना चाहिए, उन्हें ऊटपटांग जानकर वैसे ही नहीं छोड़ देना चाहिए, अपितु इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि वे कथन किस विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिए किये गये हैं तथा उनकी विवक्षा क्या है ?
उक्त कथनों का वजन हमारे ध्यान में आना चाहिए, तभी हम उनके मर्म तक पहुँच सकेंगे। अध्यात्म के जोर में किये गये कथनों का वास्तविक मर्म तो तभी प्राप्त होगा, जबकि हम अध्यात्म के उक्त जोर में से स्वयं गुजरेंगे, पार होंगे और उनका मर्म हमारी अनुभूति का विषय बनेगा।
कबीर की उलटवासियों के समान अध्यात्म के ये कथन अपने भीतर गहरे मर्म छिपाये होते हैं। ये कथन अध्यात्म के रंग में सराबोर
' पुण्य-पाप अधिकार, समयसार; प्रवचनसार, गाथा ७७ एवं पुण्य-पाप एकत्व द्वार
समयसार नाटक आदि में इस बात को विस्तार से समझाया गया है। २ जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वु इ को वि मुणेइ। जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह को वि हवेइ ॥७१।।
पाप को पाप तो सब जानते है; परन्तु जो पुण्य को भी पाप जानता है, वह कोई बिरला विद्वान ही होता है।
- योगसार, गाथा ७१ ३ पुव्वुत्तसयलभावा परदब् परसहावमिदि हेयं । सगदव्वमुवादेयं अंतरतच्चं हवे अप्पा ॥५०॥
पूर्वोक्त सर्व भाव (क्षायिक आदि) पर स्वभाव हैं, परद्रव्य हैं; इसलिए हेय हैं । अन्तस्तत्त्व स्वद्रव्य प्रात्मा ही उपादेय है
-नियमसार, गाथा ५०