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[ जिनवरस्य नयचक्रम् से इनका ज्ञान कर लेने की बात कहती है । अन्ततः तो निश्चयनय दोनों का निषेध कर ही देता है।
अतः हम कह सकते हैं कि दोनों शैलियों को प्रात्मा और देह की एकता अथवा परस्पर कर्ता-कर्म संबंध इष्ट नहीं है; तथा आत्मा और देह की वर्तमान में जो एकक्षेत्रावगाहरूप संयोगी अवस्था है, उससे भी किसी को इन्कार नहीं है। इसलिए दोनों शैलियों में कोई विरोध नहीं है, मात्र विवक्षा-भेद है।
प्रथमशैलीवालों की विवक्षा यह है कि जब संयोग है तो उसे विषय बनानेवाला नय भी होना चाहिये, चाहे वह असद्भुत ही क्यों न हो। द्वितीयशैलीवालों की विवक्षा यह है कि जब देह और आत्मा की एकता इष्ट नहीं है, तो उसे विषय बनानेवाले ज्ञान या वचन को नय संज्ञा क्यों हो? रही बात जाननेरूप प्रयोजन की सिद्धि की, सो उक्त प्रयोजन की सिद्धि नयाभास से ही हो जावेगी।
इसप्रकार हम देखते हैं कि उक्त दोनों शैलियों में वस्तस्थिति के सन्दर्भ में कोई मौलिक मतभेद नहीं है। जो भी मतभिन्नता दिखाई देती है, वह मात्र नामकरण के संबंध में ही है।
प्रथमशैली के पक्ष में तर्क यह है कि जो भी स्थिति जगत में है, उसका ज्ञान करनेवाला या कथन करनेवाला नय अवश्य होना चाहिए। अतः देह और आत्मा के संयोग को जाननेवाले सम्यग्ज्ञान के अंश को नय ही मानना होगा।
देह और आत्मा का संयोग सर्वथा काल्पनिक तो है नहीं, लोक में देह और आत्मा की संयोगरूप अवस्था पाई तो जाती ही है। तथा मकानादि के स्वामित्व का व्यवहार सम्यग्ज्ञानियों के भी पाया जाता है। इसीप्रकार 'जो मिट्टी के घड़े बनाये, वह कुंभकार और जो स्वर्ण के गहने बनाये, वह स्वर्णकार' - इसप्रकार का व्यवहार भी लोक में प्रचलित ही है।
___ इन्हें किसी भी नय का विषय स्वीकार न करने पर अर्थात् देह और प्रात्मा के संयोगरूप त्रस-स्थावरादि जीवों को किसी भी अपेक्षा जीव नहीं मानने पर उनकी हिंसा का निषेध किस नय से होगा ? तथा ज्ञानियों की दृष्टि में कुम्हार और सुनार का भेद किस नय से होगा? तात्पर्य यह है कि ज्ञानीजन 'यह कुम्हार है और यह सुनार' - ऐसा व्यवहार किस नय के प्राश्रय से करेंगे?