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________________ निश्चय-व्यवहार : विविध प्रयोग प्रश्नोत्तर (१) प्रश्न :- व्यवहारनय की विषयवस्तु के सबंध में प्राप्त विविधप्रकार के प्रयोगों में जिन दो प्रकार के प्रयोगो की चर्चा की गई है, उनमें बहुत अन्तर दिखाई देता है। प्रथम शैली में जिस वस्तु को विषय करनेवाले ज्ञान या वचन को नय कहा गया है, द्वितीय शैली मे उसे नयाभास बताया गया है। परस्पर विरुद्ध होने से दोनों ही कथनों को सत्य कैसे माना जा सकता है ? उत्तर :- उक्त दोनों कथनो में विरोध न होकर विवक्षा-भेद है। विरोध तो तब होता जब दोनों कथनो मे से एक को उपादेय और दूसरे को हेय कहा जाता । यहाँ तो दोनों ही शैलियों मे देह और मकानादि बाह्य पदार्थों को अपना मानने का निषेध ही किया जा रहा है। प्रथम शैली में उन्हे असद्भूतव्यवहारनय का विषय बताकर तथा द्वितीय शैली मे नयाभास का विषय बताकर हेय बताया गया है । सयोगरूप दशा में ज्ञान के प्रयोजन की सिद्धि के लिए आपतितव्यवहार के रूप में दोनो ही शैलियों में उन्हे स्वीकार किया गया है; मात्र अन्तर इतना है कि प्रथम शैली मे असद्भुतव्यवहारनय के रूप मे तथा द्वितीयशैली में नयाभास के रूप में स्वीकार किया गया है। देह और मकानादि संयोगी पदार्थों को आत्मा का कहनेवाले कथनों को अथवा देह व मकानादि की क्रिया का कर्ता प्रात्मा को कहनेवाले कथनों को वास्तविक सत्य या पारमार्थिक सत्य के रूप में तो कही भी स्वीकार नहीं किया गया है, उन्हें मात्र जानने के लिए प्रयोजनभूत के अर्थ मे व्यवहारिक सत्य ही माना गया है, जो कि पारमार्थिकदृष्टि से असत्य ही है। वस्तु के वास्तविक स्वरूप की दृष्टि से देखने पर यद्यपि प्रात्मा और देह को एक कहनेवाले कथन अथवा प्रात्मा को देहादिक की क्रिया का कर्ता कहनेवाले कथन असत्य ही हैं ; तथापि जब संयोगरूप दशा की दृष्टि से देखते हैं तो उन्हें सर्वथा असत्य भी नहीं कहा जा सकता है । इसी संयोगरूप दशा का ज्ञान कराने की दृष्टि से प्रथमशैली उन्हें असद्भूतव्यवहारनय का विषय बताती है तथा द्वितीयशैली नयाभासों के माध्यम
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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