________________
पंचाध्यायी के अनुसार व्यवहारनय के भेद-प्रभेद ]
[ १५३
" ननु चैवं सति नियमादुक्तासद्भूतलक्षरणो न नयः । भवति नयाभासः किल क्रोधादीनामतद्गुरणारोपात् ।। ५६४ ॥ नैवं यतो यथा ते क्रोधाद्या जीवसम्भवा भावाः ।
न तथा पुद्गलवपुषः सन्ति च वरर्णादयो हि जीवस्य ॥ ५६५ || '
शंका :- यदि एक वस्तु के गुरण दूसरी वस्तु में प्रारोपित करके उनको उस वस्तु का कहना, यह नयाभास है तो ऐसा मानने पर जो पहले असद्भूतव्यवहारनय का लक्षरण कह श्राये हैं, उसे नय न कहकर नयाभास कहना चाहिए; क्योंकि उसमें क्रोधादिक जीव के गुरण न होते हुए भी उनका जीव में आरोप किया गया है ?
समाधान: - यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे ये क्रोधादिक भाव जीव में उत्पन्न होते हैं, वैसे पुद्गलमयी वर्णादिक जीव के नहीं पाये जाते हैं । अत: असद्भूतव्यवहारनय के विषयरूप क्रोधादिक को जीव का कहना अनुचित नहीं है ।"
जिन्हें नयचक्रादि ग्रंथों में अनुपचरित और उपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनयों के विषय बनाया गया है, उन्हें पंचाध्यायी में नयाभास के विषय के रूप में चित्रित किया गया है ।
उक्त सम्पूर्ण विषयों को चार प्रकार के नयाभासों में वर्गीकृत किया गया है ।
प्रथम नयाभास की चर्चा करते हुए वे लिखते है :
--
" श्रस्ति व्यवहारः किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति स जीवस्ततोऽप्यनन्यत्वात् ॥५६७॥ सोऽयं व्यवहारः स्यादव्यवहारो यथापसिद्धान्तात् । श्रप्यपसिद्धान्तत्वं नासिद्ध स्यादनेकधमत्वात् ॥५६८ ।। नाशंक्यं कारणमिदमेक क्षेत्रावगाहिमात्रं सर्वद्रव्येषु
यत् । यतस्तथावगाहाद्भवेदतिव्याप्तिः ॥ ५६ ॥
श्रपि भवति बन्ध्यबंधकभावो यदि वानयोर्न शक्यमिति । तदनेकत्वे नियमात्तबन्धस्य स्वतोऽप्यसिद्धत्वात् ॥ ५७० ॥ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथः ।
प्रथ
न यतः स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य कि निमित्ततया ।। ५७१ ॥ २
१ पंचाध्यायी, श्र० १, श्लोक ५६४ - ५६५
२ वही, अ० १, श्लोक ५६७-५७१