________________
१५२ ]
[ जिनवरस्य नयचक्रम् ननु किल वस्तुविचारे भवतु गुणो वाऽथ दोष एव यतः। न्यायबलादायातो दुर्वारः स्यानयप्रवाहश्च ॥५५६॥ सत्यं दुर्वारः स्यानयप्रवाहो यथा प्रमाणाद वा। दुर्वारश्च तथा स्यात् सम्यमिथ्येति नयविशेषोऽपि ॥५५७॥'
शंका:-जिसमें एक वस्तु के गुण दूसरी वस्तु में आरोपित किए जाते हैं, वह असद्भूतव्यवहारनय है । 'जीव वर्णादिवाला है' - ऐसा कथन करना, इसका दृष्टान्त है। यदि ऐसा माना जाय तो क्या आपत्ति है ?
समाधान :- यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो एक वस्तु के गुणों को दूसरी वस्तु में आरोपित करके विषय करते हैं और जो स्वयं असतव्यवहार में संबंध रखते हैं, वे नय नहीं हैं किन्तु नयाभास हैं ।
इसका खुलासा इसप्रकार है कि जितने भी नय एक वस्तु के गुणों को दूसरी वस्तु में आरोपित करके विषय करनेवाले कहे गये हैं, वे सब मिथ्यावाद होने से खण्डित हो जाते हैं। साथ ही उनका नयरूप से कथन करनेवाले भी मिथ्यादृष्टि ठहरते हैं।
वह मिथ्यावाद यों हैं कि 'जीव वर्णादिवाला है' - ऐसा जो कथन किया जाता है, सो इस कथन से कोई लाभ तो है नहीं, किन्तु उल्टा दोष ही है; क्योंकि इससे जीव और वर्णादिक में एकत्वबुद्धि होने लगती है।
शंका:- वस्तु के विचार करने में गुरण हो अथवा दोष हो, किन्तु उससे कोई प्रयोजन नहीं है; क्योंकि नय प्रवाह न्यायबल से प्राप्त है । अतः उसका रोकना कठिन है।
___समाधान :- यह कहना ठीक है कि पूर्वोक्त नयप्रवाह का प्राप्त होना अनिवार्य है, किन्तु प्रमाणानुसार कौन समीचीननय है और कौन मिथ्यानय है - इस भेद का होना भी अनिवार्य है।"
यद्यपि पंचाध्यायीकार असद्भूतव्यवहारनय की परिभाषा में यह स्वयं स्वीकार करते हैं कि 'प्रन्यद्रव्यस्यगुणाः संयोज्यन्ते बलादन्यत्रअन्य द्रव्य के गुरणों की बलपूर्वक अन्य द्रव्य में संयोजना करना असद्भूतव्यवहारनय है' तथापि यहाँ उसी बात का निषेध करते दिखाई देते हैं।
इस शंका को पंचाध्यायीकार स्वयं उठाते हैं, तथा इसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं, जो इसप्रकार है :• पंचाध्यायी, अ० १, श्लोक ५५२-५५७